अध्याय 10: देवताओं तथा असुरों के बीच युद्ध
संक्षेप विवरण: दसवें अध्याय का सारांश इस प्रकार है—असुरों तथा देवताओं में ईर्ष्या होने के कारण युद्ध चलता रहा। जब देवता असुरों की चाल से प्राय: हार गए और अत्यन्त खिन्न हो गए।…
श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! यद्यपि असुर तथा दैत्य पूरे मनोयोग तथा श्रम के साथ समुद्र-मन्थन में लगे थे, किन्तु भगवान् वासुदेव के भक्त न होने के कारण वे अमृत नहीं पी सके।
श्लोक 2: हे राजा! समुद्र-मन्थन का कार्य पूरा कर लेने तथा अपने प्रिय भक्त देवताओं को अमृत पिला लेने के बाद भगवान् ने उन सबके देखते-देखते वहाँ से विदा ली और गरुड़ पर चढक़र अपने धाम चले गये।
श्लोक 3: देवताओं की विजय देखकर असुरगण उनके श्रेष्ठतर ऐश्वर्य को सहन न कर सके। अत: वे अपने-अपने हथियार उठाकर देवताओं की ओर दौड़ पड़े।
श्लोक 4: तत्पश्चात् अमृत पीने से उत्तेजित देवताओं ने जो सदैव नारायण के चरणकमलों की शरण में रहते हैं असुरों पर प्रत्याक्रमण करने के लिए युद्ध की मनोवृत्ति से अपने विविध हथियारों का प्रयोग किया।
श्लोक 5: हे राजा! देवताओं तथा असुरों के मध्य क्षीरसागर के तट पर घमासान युद्ध शुरु हो गया। यह युद्ध इतना भयंकर था कि इसके विषय में सुनने से ही शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
श्लोक 6: उस युद्ध में दोनों ही दल मन ही मन अत्यन्त क्रुद्ध थे। वे शत्रुतावश एक दूसरे पर तलवारों, बाणों तथा अन्य विविध हथियारों से प्रहार करने लगे।
श्लोक 7: शंखों, तुरहियों, ढोलों, भेरियों तथा डमरियों की आवाजों के साथ ही हाथियों, घोड़ों तथा रथ पर चढ़े और पैदल सिपाहियों से निकली ध्वनियों से कोलाहल मच गया।
श्लोक 8: उस युद्धभूमि में रथी अपने विपक्षी रथियों से, पैदल सेना विपक्षी पैदल सेना से, अश्वारोही विपक्षी अश्वारोहियों से तथा हाथी पर सवार सैनिक विपक्षी हाथी पर सवार सैनिकों से भिड़ गये। इस प्रकार समान पक्षों में युद्ध होने लगा।
श्लोक 9: कुछ सैनिक ऊँटों पर, कुछ हाथियों पर, कुछ गधों पर, कुछ सफेद मुँह वाले और लाल मुँह वाले बन्दरों पर, कुछ बाघों पर और कुछ सिंहों पर सवार होकर लडऩे लगे। इस प्रकार वे सब युद्ध में लगे थे।
श्लोक 10-12: हे राजा! कुछ सैनिक गीधों, चील्हों, बगुलों, बाजों तथा भास पक्षियों की पीठ पर बैठकर लड़े। कुछ ने विशाल मत्स्यों (तिमि) को भी निगलने वाली तिमिंगलों की पीठ पर, कुछ ने सरभों की पीठ पर तो कुछ ने भैंसों, गैंडों, गायों, बैलों, बनगायों तथा अरुणों की पीठ पर सवार होकर युद्ध किया। अन्य लोगों ने सियारों, चूहों, छिपकलियों, खरहों, मनुष्यों, बकरों, काले हिरनों, हंसों तथा सुअरों की पीठ कर बैठकर युद्ध किया। इस प्रकार जल, स्थल तथा आकाश के पशुओं की पीठ पर, जिनमें विकृत शरीर वाले पशु भी थे, बैठी दोनों सेनाएँ आमने-सामने होकर आगे बढ़ रही थीं।
श्लोक 13-15: हे राजा! हे महाराज पाण्डु के वंशज! देवता तथा असुर दोनों ही के सैनिक चँदोवा, रंगबिरंगी झंडियों तथा बहुमूल्य रत्नों एवं मोतियों से बनी मूठ वाले छातों से अलंकृत थे। वे मोरपंख से बने तथा अन्य पंखों से सुशोभित थे। ऊपरी तथा अधोवस्त्रों के वायु में लहराने के कारण सैनिक अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे और चमचमाती धूप में उनकी ढालें, उनके गहने तथा तीक्ष्ण स्वच्छ हथियार आँखों को चौंधिया रहे थे। इस तरह सैनिकों की टोलियाँ जलचरों के दलों से युक्त दो सागरों के समान प्रतीत हो रही थीं।
श्लोक 16-18: उस युद्ध के लिए विख्यात सेनापति विरोचन-पुत्र महाराज बलि वैहायस नामक अद्भुत वायुयान पर आसीन थे। हे राजा! यह सुन्दर ढंग से सजाया गया वायुयान मय दानव द्वारा निर्मित किया गया था और युद्ध के सभी प्रकार के हथियारों से युक्त था। यह अचिन्त्य तथा अवर्णनीय था। यह कभी दिखता तो कभी नहीं दिखता था। इस वायुयान में एक सुन्दर छाते के नीचे बैठे तथा सर्वोत्तम चमरों से पंखा झले जाते हुए एवं अपने सेनानायकों से घिरे महाराज बलि इस प्रकार लग रहे थे मानों शाम को चन्द्रमा उदय हो रहा हो और सभी दिशाओं को प्रकाशित कर रहा हो।
श्लोक 19-24: महाराज बलि को चारों ओर से असुरों के सेनानायक तथा कप्तान घेरे थे। वे अपने-अपने रथों पर सवार थे। उनमें निम्नलिखित असुर थे—नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख, द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति, हेति, इल्वल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्रदंष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शंकुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक, चक्रदृक्, शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिप, मय, पुलोम के पुत्र कालेय तथा निवातकवच। ये सारे असुर अमृत के अपने-अपने भाग से वञ्चित रह गये थे; उन्होंने केवल समुद्र-मन्थन का श्रम उठाया था। अब वे सुरों के विरुद्ध लड़ रहे थे और अपनी सेनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने सिंह-गर्जना के समान कोलाहल किया और जोर से अपने-अपने शंख बजाये। बलभित अर्थात् इन्द्रदेव अपने रक्तपिपासु प्रतिद्वन्द्वियों की यह स्थिति देखकर अत्यन्त कुपित हुए।
श्लोक 25: ऐरावत हाथी पर जो कहीं भी जा सकता है और जो छिडक़ने के लिए जल तथा सुरा को संचित रखता है, चढक़र इन्द्र ऐसे लग रहे थे मानो उदयगिरि से जहाँ जल के आगार हैं सूर्य निकल रहा हो।
श्लोक 26: देवतागण स्वर्ग के राजा इन्द्र को घेरे हुए थे। वे नाना प्रकार के यानों पर सवार थे और झंडों तथा आयुधों से सज्जित थे। उपस्थित देवताओं में वायु, अग्नि, वरुण तथा विभिन्न लोकों के अन्य शासक तथा उनके पार्षद थे।
श्लोक 27: देवता तथा दानव एक दूसरे के सम्मुख आ गये और मर्मभेदी वचनों से एक दूसरे को धिक्कारने लगे। तब वे निकट आकर जोडिय़ों के रूप में आमने-सामने लडऩे लगे।
श्लोक 28: हे राजा! महाराज बलि इन्द्र से, कार्तिकेय तारक से, वरुण हेति से तथा मित्र प्रहेति से भिड़ गये।
श्लोक 29: यमराज कालनाभ से, विश्वकर्मा मय दानव से, त्वष्टा शम्बर से तथा सूर्यदेव विरोचन से लडऩे लगे।
श्लोक 30-31: अपराजित देवता ने नमुचि असुर के साथ तथा दोनों अश्विनी कुमारों ने वृषपर्वा के साथ युद्ध किया। सूर्यदेव महाराज बलि के सौ पुत्रों से भिड़ गये जिनमें बाण प्रमुख था। चन्द्रदेव ने राहु से लड़ाई की। वायुदेव ने पुलोमा से तथा शुम्भ और निशुम्भ ने अत्यन्त शक्तिशाली माया भद्रकाली नामक दुर्गादेवी से युद्ध किया।
श्लोक 32-34: हे अरिन्दम महाराज परीक्षित! शिवजी ने जम्भ से तथा विभावसु ने महिषासुर से युद्ध किया। इल्वल ने, अपने भाई वातापि सहित, ब्रह्मा के पुत्रों से युद्ध किया। दुर्मर्ष कामदेव से, उत्कल मातृका नामक देवियों से, बृहस्पति शुक्राचार्य से तथा शनैश्चर नरकासुर से युद्ध में भिड़ गए। मरुत्गण निवातकवच से, वसुओं ने दैत्य कालकेयों से, विश्वेदेवों ने पौलोमों असुरों से तथा रुद्रगणों ने क्रुद्ध क्रोधवश असुरों से युद्ध किया।
श्लोक 35: ये सारे देवता तथा असुर लडऩे के उत्साह से युद्धभूमि में एकत्र हुए और अत्यन्त बलपूर्वक एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। वे सब विजय की कामना करते हुए जोड़े बनाकर लडऩे लगे और तेज बाणों, तलवारों तथा भालों से बुरी तरह एक दूसरे को मारने लगे।
श्लोक 36: उन्होंने भुशुण्डि, चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टिश, शक्ति, उल्मुक, प्रास, परश्वध, निस्त्रिंश, भाला, परिघ, मुद्गर तथा भिन्दिपाल नामक हथियारों से एक दूसरे के सिर काट डाले।
श्लोक 37: हाथी, घोड़े, रथ, सारथी, पैदल सेना तथा सवारों सहित विविध प्रकार के वाहन ध्वस्त हो गये। सैनिकों की भुजाएँ, जांघें, गर्दन तथा टांगे कट गईं और उनके झंडे, धनुष, कवच तथा आभूषण छिन्न-भिन्न हो गये।
श्लोक 38: भूमि पर देवताओं तथा असुरों के पाँवों तथा रथों के पहियों के आघात से आकाश में तेजी से धूल के कण उडऩे लगे और धूल का बादल छा गया जिससे सूर्य तक का सारा बाह्य आकाश चारों ओर से ढक गया। किन्तु जब धूल कणों के पश्चात् रक्त की बूँदें सारे आकाश में फुहार की तरह उठने लगीं तो धूल के बादलों का आकाश में मँडराना बन्द हो गया।
श्लोक 39: युद्ध के दौरान युद्धभूमि वीरों के कटे सिरों से पट गई। उनकी आँखें अब भी घूर रही थीं और क्रोध से उनके दाँत उनके होठों से लगे हुए थे। इन छिन्न सिरों के मुकुट तथा कुण्डल बिखर गये थे। इसी प्रकार आभूषणों से सज्जित तथा विविध हथियार पकड़े हुईं अनेक भुजाएँ इधर- उधर बिखरी पड़ी थीं और हाथी की सूँडों जैसे अनेक टांगे तथा जाँघें भी इसी तरह बिखरी हुई थीं।
श्लोक 40: उस युद्धभूमि में शीषरहित अनेक धड़ उत्पन्न हो गए थे। वे प्रेततुल्य धड़ अपने हाथों में हथियार लिए, पड़े हुए सिरों की आँखों से देखकर शत्रु सैनिकों पर आक्रमण कर रहे थे।
श्लोक 41: महाराज बलि ने तब दस बाणों से इन्द्र पर तथा तीन बाणों से इन्द्र के वाहन ऐरावत पर वार किया। उन्होंने चार बाणों से ऐरावत के पाँवों की रक्षा करने वाले चार घुड़सवारों पर आक्रमण किया और एक बाण से उसके चालक पर।
श्लोक 42: इसके पूर्व कि बलि महाराज के बाण स्वर्ग के राजा इन्द्र तक पहुँचे, बाणों के चलाने में पटु इन्द्र ने हँसते हुए एक अन्य प्रकार के अत्यन्त तीक्ष्ण भल्ल नामक बाण से उन्हें काट डाला।
श्लोक 43: जब बलि महाराज ने इन्द्र के दक्ष सैन्य कार्यकलापों को देखा तो वे अपना क्रोध रोक न सके। उन्होंने शक्ति नामक एक दूसरा हथियार ग्रहण किया जो महान् अग्नि पुंज की भाँति ज्वलित हो रहा था। किन्तु इन्द्र ने इसे बलि के हाथ से छूटने के पूर्व ही खण्ड-खण्ड कर दिया।
श्लोक 44: तत्पश्चात् बलि महाराज ने एक-एक करके भाला, प्रास, तोमर, ऋष्टि तथा अन्य हथियार चलाये, किन्तु वे जो भी हथियार लेते थे, उन्हें महान् इन्द्र तुरन्त ही खण्ड-खण्ड कर देते थे।
श्लोक 45: हे राजा! तब बलि महाराज अदृश्य हो गये और उन्होंने आसुरी माया का सहारा लिया। तब देवताओं की सेना के सिरों के ऊपर माया से उत्पन्न एक विशाल पर्वत प्रकट हुआ।
श्लोक 46: उस पर्वत से दावाग्नि से जलते हुए वृक्ष गिरने लगे। उससे पत्थर की कुल्हाड़ी जैसी तीक्ष्ण धार वाले पत्थर-खण्ड भी गिरने लगे जिससे देवताओं के सैनिकों के सिर चकनाचूर हो गये।
श्लोक 47: देवताओं के सैनिकों पर बिच्छू, बड़े-बड़े सर्प तथा अन्य अनेक विषैले पशुओं के साथ साथ सिंह, बाघ, सूअर तथा बड़े-बड़े हाथी गिरने लगे और हर वस्तु को चकनाचूर करने लगे।
श्लोक 48: हे राजा! तब कई सौ नरभक्षी नर और मादा असुर, जो पूर्णतया नग्न थे और अपने हाथों में त्रिशूल लिए थे “काट डालो! छेद डालो!” के नारे लगाते हुए प्रकट हुए।
श्लोक 49: तब आकाश में प्रबल वायु से प्रताडि़त घनघोर घटाएँ प्रकट हो आईं। वे गम्भीर गर्जना करती हुईं जलते कोयलों के अंगारे बरसाने लगीं।
श्लोक 50: महाराज बलि द्वारा उत्पन्न की गई अत्यन्त संहारक अग्नि देवताओं के सभी सैनिकों को जलाने लगी। यह अग्नि तेज बहती हवाओं के साथ उस सांवर्तक अग्नि जैसी प्रतीत हो रही थी जो प्रलय के समय प्रकट होती है।
श्लोक 51: तत्पश्चात् हवाओं के प्रचण्ड झकोरों से क्षुब्ध समुद्री लहरें तथा भँवर सब की आँखों के सामने एक भीषण बाढ़ के रूप में चारों ओर प्रकट हो आए।
श्लोक 52: जब ऐसे मायावी कार्यों में दक्ष अदृश्य असुरों द्वारा युद्ध में इस तरह का जादुई वातावरण उत्पन्न किया जा रहा था, तो देवताओं के सैनिक खिन्न हो गये।
श्लोक 53: हे राजा! जब देवताओं को असुरों के कार्यों का निराकरण कर पाने का कोई उपाय न सूझा तो उन्होंने ब्रह्माण्ड के स्रष्टा भगवान् का पूर्ण मनोयोग से ध्यान किया और वे तुरन्त ही प्रकट हो गये।
श्लोक 54: नवविकसित कमल की पंखुडिय़ों सदृश आँखों वाले भगवान् गरुड़ की पीठ पर बैठे थे और गरुड़ के कंधों पर अपने चरणकमल फैलाये थे। वे पीत वस्त्र धारण किये, कौस्तुभ मणि तथा लक्ष्मीजी से सुसज्जित एवं अमूल्य मुकुट तथा कुण्डल पहने अपनी आठों भुजाओं में विविध आयुध धारण किये देवताओं को दृष्टिगोचर हुए।
श्लोक 55: जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले के जगते ही स्वप्न के भय दूर हो जाते हैं उसी तरह युद्धभूमि में भगवान् के प्रवेश करते ही उनकी दिव्य शक्ति से असुरों की जादूगरी से उत्पन्न माया विलीन हो गई। निस्सन्देह, भगवान् के स्मरण मात्र से मनुष्य सारे संकटों से मुक्त हो जाता है।
श्लोक 56: हे राजा! जब सिंह पर आरूढ़ कालनेमि दैत्य ने देखा कि गरुड़वाहन भगवान् युद्धक्षेत्र में हैं, तो उसने तुरन्त अपना त्रिशूल निकाल लिया और उसे गरुड़ के सिर पर चलाया। किन्तु तीनों लोकों के स्वामी भगवान् हरि ने तुरन्त ही उस त्रिशूल को पकड़ लिया और उसी हथियार से अपने शत्रु कालनेमि को उसके वाहन सिंह समेत मार डाला।
श्लोक 57: तत्पश्चात् भगवान् ने माली तथा सुमाली नामक दो शक्तिमान असुरों को मारा। उन्होंने अपने चक्र से उनके सिर काट दिये। तब एक अन्य असुर माल्यवान ने भगवान् पर आक्रमण किया। उसने अपनी नुकीली गदा से, सिंह की भाँति गर्जना करते हुए, अण्डो से उत्पन्न पक्षिराज गरुड़ पर आक्रमण किया। किन्तु आदि पुरुष भगवान् ने अपने चक्र का प्रयोग करते हुए उस शत्रु के सिर को भी काट दिया।