अध्याय 11: इन्द्र द्वारा असुरों का संहार
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बताया गया है कि महान् मुनि नारद को उन असुरों पर अत्यधिक दया आई जो देवताओं द्वारा मारे गये थे। अत: उन्होंने देवताओं को इस रक्तपात को बन्द करने के लिए…
श्लोक 1: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात् भगवान् श्रीहरि की परम कृपा से इन्द्र, वायु इत्यादि सारे देवता जीवित हो गये। इस प्रकार जीवित होकर सारे देवता उन्ही असुरों को बुरी तरह पीटने लगे जिन्होंने पहले उन्हें परास्त किया था।
श्लोक 2: जब परमशक्तिशाली इन्द्र क्रुद्ध हो गए और उन्होंने महाराज बलि को मारने के लिए अपने हाथ में वज्र ले लिया तो सारे असुर “हाय हाय” चिल्ला कर शोक करने लगे।
श्लोक 3: गम्भीर, सहिष्णु तथा लडऩे के साज-सामान से भलीभान्ति युक्त बलि महाराज उस विशाल युद्धस्थल में इन्द्र के सामने घूम रहे थे। सदा हाथ में वज्र लिये रहने वाले इन्द्र ने बलि महाराज को इस प्रकार तिरस्कारपूर्वक ललकारा।
श्लोक 4: इन्द्र ने कहा : रे धूर्त! जिस प्रकार ठग बच्चे की आँखों को बाँध कर कभी-कभी उसका धन ले जाता है उसी प्रकार तुम यह जानते हुए कि हम सब ऐसी माया-शक्तियों के स्वामी हैं, अपनी कोई मायाशक्ति दिखलाकर हमें परास्त करना चाहते हो।
श्लोक 5: उन मूर्खों तथा धूर्तों को जो माया से या यांत्रिक साधनों से उच्चलोकों तक पहुँचना चाहते हैं या जो उच्चलोकों को भी पार करके वैकुण्ठलोक या मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, मैं उन्हें ब्रह्माण्ड के सबसे निम्न भाग में भिजवाता हूँ।
श्लोक 6: आज, मैं, वही शक्तिशाली व्यक्ति, हजारों तेज धारों वाले अपने वज्र से तुम्हारे सिर को शरीर से काटकर अलग कर दूँगा। यद्यपि तुम माया द्वारा पर्याप्त चमत्कार दिखा सकते हो, किन्तु तुम्हारा ज्ञान अत्यल्प है। अब तुम अपने परिजनों तथा मित्रों सहित युद्धभूमि में ठहरने की ही चेष्टा दिखा करो।
श्लोक 7: बलि महाराज ने उत्तर में कहा : सभी लोग जो इस युद्धभूमि में उपस्थित हैं निश्चय ही नित्य काल के वश में हैं और वे अपने-अपने नियत कर्मों के अनुसार क्रमश: यश, विजय, हार तथा मृत्यु प्राप्त करेंगे।
श्लोक 8: काल की गतियों को देखकर, जो लोग वास्तविक सत्य से अवगत हैं, वे विभिन्न परिस्थितियों के लिए न तो हर्षित होते हैं, न सोचते हैं। चूँकि तुम लोग अपनी विजय पर हर्षित हो अत: तुम्हें अत्यन्त विद्वान नहीं कहा जा सकता।
श्लोक 9: तुम देवता लोग अपने आपको अपनी ख्याति तथा विजय प्राप्त करने का कारण मानते हो। तुम लोगों की अज्ञानता के कारण साधु पुरुष तुम्हारे लिए शोक करते हैं। अतएव तुम्हारे वचन मर्मस्पर्शी होते हुए भी हमें स्वीकार्य नहीं हैं।
श्लोक 10: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : स्वर्ग के राजा इन्द्र को इस प्रकार कटु वचनों से फटकारने के बाद वीरों को मर्दन करने वाले बलि महाराज ने नाराच बाणों को अपने कान तक खींचा और उनसे इन्द्र पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने पुन: इन्द्र को कठोर शब्दों से प्रताडि़त किया।
श्लोक 11: चूँकि महाराज बलि की फटकारें सत्य थीं अतएव इन्द्र तनिक भी खिन्न नहीं हुआ जिस तरह एक हाथी पीलवान द्वारा अंकुश से पीटा जाने पर भी कभी विचलित नहीं होता।
श्लोक 12: जब शत्रुओं को हराने वाले इन्द्र ने अपना अमोघ वज्र बलि महाराज पर उन्हें मारने की इच्छा से चलाया तो सचमुच बलि महाराज अपने वायुयान समेत भूमि पर गिर पड़े मानो कोई पर्वत पंख काटे जाने से गिरा हो।
श्लोक 13: जब जम्भासुर ने देखा कि उसका मित्र बलि गिर गया है, तो वह उसके शत्रु इन्द्र के समक्ष प्रकट हुआ मानो मैत्रीपूर्ण आचरण से बलि महाराज की सेवा करने के लिए आया हो।
श्लोक 14: अत्यन्त शक्तिशाली जम्भासुर सिंह पर सवार होकर इन्द्र के पास आया और उसने अपनी गदा से उसके कंधे पर बलपूर्वक प्रहार किया। उस ने इन्द्र के हाथी पर भी प्रहार किया।
श्लोक 15: जम्भासुर की गदा से चोट खाकर इन्द्र का हाथी विचलित और पीडि़त हो गया। उसने भूमि पर घुटने टेक दिये और वह अचेत होकर गिर गया।
श्लोक 16: तत्पश्चात् इन्द्र का सारथी मातलि इन्द्र का रथ ले आया जिसे एक हजार घोड़े खींच रहे थे। तब इन्द्र ने अपने हाथी को छोड़ दिया और वह रथ पर चढ़ गया।
श्लोक 17: मातलि के सेवाभाव की प्रशंसा करते हुए असुरश्रेष्ठ जम्भासुर मुस्कराने लगा। फिर भी उसने युद्धभूमि में अग्नि के समान जलते हुए अपने त्रिशूल से मातलि पर प्रहार कर दिया।
श्लोक 18: यद्यपि मातलि की वेदना असह्य थी, किन्तु उसने बड़े धैर्य से उसे सह लिया। किन्तु इन्द्र जम्भासुर पर अत्यधिक क्रुद्ध हो उठा। उसने अपने वज्र से उस पर प्रहार किया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया।
श्लोक 19: जब नारद ऋषि ने जम्भासुर के मित्रों तथा सम्बन्धियों को यह जानकारी दी कि जम्भासुर मारा गया है, तो नमुचि, बल तथा पाक नामक तीन असुर बड़ी तेजी से युद्धभूमि में आ गए।
श्लोक 20: इन्द्र को कठोर, मर्मभेदी शब्दों से भला-बुरा कहते हुए इन असुरों ने उस पर बाणों से उसी प्रकार वर्षा की जिस तरह वर्षा की झड़ी किसी महान् पर्वत को धो देती है।
श्लोक 21: बल नामक असुर ने युद्धभूमि में परिस्थिति को तुरन्त सँभालते हुए इन्द्र के सभी एक हजार घोड़ों को उतने ही बाणों से एकसाथ घायल करके संकट में डाल दिया।
श्लोक 22: एक दूसरे असुर पाक ने अपने धनुष पर दो सौ बाण चढ़ाकर और उन्हें एक ही साथ छोडक़र सारे साज-सामान से भरे रथ पर तथा सारथी मातलि पर आक्रमण किया। युद्धभूमि में यह निस्सन्देह एक अद्भुत कार्य था।
श्लोक 23: तब एक दूसरे असुर नमुचि ने इन्द्र पर आक्रमण किया और उसे पन्द्रह सुनहरे पंखों वाले अत्यन्त शक्तिशाली बाणों से घायल कर दिया जो जल से भरे बादल के समान गरज रहे थे।
श्लोक 24: अन्य असुरों ने अपने बाणों की निरन्तर वर्षा से इन्द्र को उसके रथ तथा सारथी सहित ढक दिया जिस तरह वर्षा ऋतु में बादल सूर्य को ढक लेते हैं।
श्लोक 25: देवतागण अपने शत्रुओं द्वारा बुरी तरह से सताये जाने तथा युद्धभूमि में इन्द्र को न देख पाने के कारण अत्यन्त चिन्तित थे। वे बिना नायक या कप्तान के उसी तरह विलाप करने लगे जिस तरह समुद्र के बीच में जहाज ध्वंस होने पर व्यापारी विलाप करते हैं।
श्लोक 26: तत्पश्चात् इन्द्र ने बाणों के पिंजर से अपने को छुड़ाया। वह अपने रथ, झंडे, घोड़े तथा सारथी के साथ प्रकट हुआ और आकाश, पृथ्वी तथा सभी दिशाओं में प्रसन्नता फैलाते हुए वह तेजी से ऐसे चमकने लगा मानो रात बीद जाने पर सूर्य तेजी से चमक रहा हो। इन्द्र सब की दृष्टि में तेजवान् तथा सुन्दर लग रहा था।
श्लोक 27: जब वज्रधर नाम से विख्यात इन्द्र ने देखा कि उसके सैनिक युद्धभूमि में शत्रुओं द्वारा इस तरह सताये जा रहे हैं, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। तब उसने शत्रुओं को मारने के लिए अपना वज्र उठा लिया।
श्लोक 28: हे राजा परीक्षित! राजा इन्द्र ने बल तथा पाक दोनों असुरों के सिरों को उनके सम्बन्धियों तथा अनुयायियों की उपस्थिति में अपने वज्र द्वारा काट दिया। इस तरह उसने युद्धभूमि में अत्यन्त भयावह वातावरण उत्पन्न कर दिया।
श्लोक 29: हे राजा! जब असुर नमुचि ने बल तथा पाक दोनों असुरों को मारे जाते देखा तो वह दुख तथा शोक से भर गया। अतएव उसने क्रुद्ध होकर इन्द्र को मारने का महान् प्रयास किया।
श्लोक 30: सिंह गर्जना करते हुए नमुचि ने क्रोध में आकर इस्पात का एक भाला उठाया जिसमें घण्टियाँ बँधी थीं और जो सोने के आभूषणों से सज्जित था। वह उच्चस्वर से चिल्लाया “अब तुम मारे गये।” इस प्रकार इन्द्र को मारने के लिए उसके समक्ष जाकर नमुचि ने अपना हथियार चलाया।
श्लोक 31: हे राजा! जब स्वर्ग के राजा इन्द्र ने इस अत्यन्त शक्तिशाली भाले को ज्वलित उल्का की भाँति भूमि की ओर गिरते देखा तो उसने तुरन्त ही उसे अपने बाणों से खण्ड-खण्ड कर दिया। फिर अत्यन्त क्रुद्ध होकर उसने नमुचि के कन्धे पर अपने वज्र से प्रहार किया जिससे उसका सिर कट सके।
श्लोक 32: यद्यपि इन्द्र ने नमुचि पर अपना वज्र बड़े ही वेग से चलाया था, किन्तु वह उसकी खाल को भेद तक नहीं पाया। यह बड़ी विचित्र बात है कि जिस सुप्रसिद्ध वज्र ने वृत्रासुर के शरीर को भेद डाला था वह नमुचि की गर्दन की खाल को रंचमात्र भी क्षति नहीं पहुँचा पाया।
श्लोक 33: जब इन्द्र ने वज्र को शत्रु से वापस आते देखा तो वह अत्यन्त भयभीत हो गया। वह आश्चर्य करने लगा कि कहीं किसी ऊँची दैवी शक्ति से तो यह सब कुछ नहीं हुआ।
श्लोक 34: इन्द्र ने सोचा: पूर्वकाल में जब अनेक पर्वत अपने पंखों के द्वारा आकाश में उड़ते हुए भूमि पर गिरते थे और लोगों को मार डालते थे तो मैं अपने इसी वज्र से उनके पंख काट लेता था।
श्लोक 35: यद्यपि वृत्रासुर त्वष्टा द्वारा की गई तपस्या का सार-समाहार था, तो भी (इन्द्र के) वज्र ने उसका काम तमाम कर दिया था। निस्सन्देह, वही नहीं, अपितु ऐसे अनेक अग्रणी वीर भी जिनकी खाल को अन्य हथियार तनिक भी क्षति नहीं पहुँचा सके थे इसी वज्र द्वारा मारे गए।
श्लोक 36: किन्तु, अब वही वज्र एक तुच्छ असुर पर छोड़े जाने पर भी प्रभावहीन हो गया है। अतएव ब्रह्मास्त्र जैसा होने पर भी यह मेरे लिए अब एक सामान्य डंडे की तरह व्यर्थ हो गया है। इसलिए अब मैं इसे धारण नहीं करूँगा।
श्लोक 37: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब दु:खी इन्द्र इस तरह विषाद कर रहा था, तो एक अशुभ देहरहित वाणी ने आकाश से कहा : यह असुर नमुचि किसी शुष्क या गीली वस्तु से विनष्ट नहीं किया जा सकता।
श्लोक 38: आकाशवाणी ने यह भी कहा “हे इन्द्र! चूँकि मैंने इस असुर को वर दे रखा है कि वह कभी किसी सूखे या गीले हथियार से नहीं मारा जायेगा, अतएव उसे मारने के लिए कोई अन्य उपाय सोचो।”
श्लोक 39: इस अशुभ वाणी को सुनकर इन्द्र बड़े मनोयोग से ध्यान करने लगा कि इस असुर को किस तरह मारा जाये। तब उसे यह सूझा कि झाग ही ऐसा साधन है, जो न तो गीली होती है, न शुष्क।
श्लोक 40: इस तरह स्वर्ग के राजा इन्द्र ने अपनी झाग के हथियार से नमुचि का सिर काट दिया। यह झाग न तो शुष्क थी, न आर्द्र। तब सारे मुनियों ने उस महापुरुष इन्द्र पर फूलों की वर्षा की तथा माल्यार्पण द्वारा उसे लगभग ढक दिया और सन्तुष्ट कर लिया।
श्लोक 41: विश्वावसु तथा परावसु नामक दो गन्धर्व प्रमुखों ने अतीव प्रसन्नता में गीत गाये। देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजाईं और अप्सराओं ने हर्षित होकर नृत्य किया।
श्लोक 42: वायु, अग्नि, वरुण इत्यादि देवता अपने विरोधी असुरों को उसी तरह मारने लगे जिस तरह जंगल में हिरनों को सिंह मारते हैं।
श्लोक 43: हे राजा! जब ब्रह्मा ने देखा कि दानवों का पूर्ण संहार तुरन्त होने वाला है, तो उन्होंने नारद द्वारा सन्देश भेजा जो युद्ध रुकवाने के लिए देवताओं के समक्ष गये।
श्लोक 44: महामुनि नारद ने कहा : तुम सारे देवता भगवान् नारायण की भुजाओं द्वारा सुरक्षित हो और उनकी कृपा से तुम सबको अमृत प्राप्त हुआ है। लक्ष्मीजी की कृपा से तुम हर तरह से गौरान्वित हुए हो; अतएव अब यह लड़ाई बन्द कर दो।
श्लोक 45: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : नारद मुनि के वचनों को मानकर देवताओं ने अपना क्रोध त्याग दिया और लड़ाई बन्द कर दी। वे अपने अनुयायियों द्वारा प्रशंसित होकर स्वर्गलोक को लौट गये।
श्लोक 46: युद्धक्षेत्र में जितने भी असुर बचे थे, वे सब नारद मुनि के आदेशानुसार बलि महाराज को जिनकी अवस्था अत्यन्त गम्भीर थी, अस्तगिरि ले गये ।
श्लोक 47: उस पर्वत पर शुक्राचार्य ने उन सारे मृत असुर सैनिकों को जिनके सिर, धड़ तथा हाथ- पाँव कटे नहीं थे जीवित कर दिया। उन्होंने अपने सञ्जीवनी मंत्र के द्वारा यह सब किया।
श्लोक 48: बलि महाराज सांसारिक कार्यों में अत्यन्त अनुभवी थे। जब शुक्राचार्य की कृपा से उन्हें होश आया और उनकी स्मृति लौट आई तो जो कुछ हो चुका था उसे वे समझ गये। इसलिए पराजित होने पर भी उन्हें शोक नहीं हुआ।