अध्याय 21: भगवान् द्वारा बलि महाराज को बन्दी बनाया जाना
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बताया गया है कि भगवान् विष्णु ने किस प्रकार बलि महाराज के यश का विज्ञापन करने की इच्छा से तीसरे पग के लिए अपना वचन न निभा पाने के कारण बलि महाराज को…
श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब कमलपुष्प से उत्पन्न ब्रह्माजी ने देखा कि उनके धाम ब्रह्मलोक का तेज भगवान् वामनदेव के अँगूठे के नाखूनों के चमकीले तेज से कम हो गया है, तो वे भगवान् के पास गये। ब्रह्माजी के साथ मरीचि इत्यादि ऋषि तथा सनन्दन जैसे योगीजन थे, किन्तु हे राजा! उस तेज के समक्ष ब्रह्मा तथा उनके पार्षद भी नगण्य प्रतीत हो रहे थे।
श्लोक 2-3: जो महापुरुष भगवान् के चरणकमलों की पूजा के लिए आए उनमें वे भी थे जिन्होंने आत्मसंयम तथा विधि-विधानों में सिद्धि प्राप्त की थी। साथ ही वे तर्क, इतिहास, सामान्य शिक्षा तथा कल्प नामक (प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बन्धित) वैदिक वाङ्मय में दक्ष थे। अन्य लोग ब्रह्म संहिताओं जैसे वैदिक उपविषयों, वेदों के अन्य ज्ञान तथा वेदांगों (आयुर्वेद, धनुर्वेद, इत्यादि) में पटु थे। अन्य ऐसे थे जिन्होंने योगाभ्यास से जागृत दिव्यज्ञान के द्वारा कर्मफलों से अपने को मुक्त कर लिया था। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने सामान्य कर्म से नहीं प्रत्युत उच्च वैदिक ज्ञान द्वारा ब्रह्मलोक में निवासस्थान प्राप्त किया था। जल तर्पण द्वारा भगवान् के ऊपर उठे चरणकमलों की भक्तिपूर्वक पूजा कर लेने के बाद भगवान् विष्णु की नाभि से निकले कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी ने भगवान् की स्तुति की।
श्लोक 4: हे राजा! ब्रह्मा के कमण्डल से निकला जल अद्भुत कार्यों को करने वाले उरुक्रम भगवान् वामनदेव के चरणकमलों को धोने लगा। इस प्रकार यह जल इतना शुद्ध हो गया कि यह गंगाजल में परिणत होकर आकाश से नीचे बहता हुआ तीनों लोकों को शुद्ध करने लगा मानो भगवान् का विमल यश हो।
श्लोक 5: ब्रह्माजी तथा विभिन्न लोकों के समस्त प्रधान देवता अपने उन परम स्वामी भगवान् वामनदेव की पूजा करने लगे जिन्होंने अपने सर्वत्र-व्यापक रूप को छोटा करके अपना आदि रूप ग्रहण कर लिया था। उन्होंने पूजा की सारी सामग्री एकत्रित की।
श्लोक 6-7: उन्होंने सुगन्धित पुष्प, जल, पाद्य तथा अर्घ्य, चन्दन तथा अगुरु के लेप, धूप, दीप, लावा, अक्षत, फल, मूल तथा अंकुर से भगवान् की पूजा की। ऐसा करते समय उन्होंने भगवान् के यशस्वी कार्यों को सूचित करने वाली स्तुतियाँ कीं और जयजयकार किया। इस तरह भगवान् की पूजा करते हुए उन्होंने नृत्य किया, वाद्ययंत्र बजाये, गाया और शंख और दुन्दुभियां बजाईं।
श्लोक 8: रीछों के राजा जाम्बवान भी इस उत्सव में सम्मिलित हो गये। उन्होंने सारी दिशाओं में बिगुल बजाकर भगवान् वामनदेव की विजय का महोत्सव घोषित कर दिया।
श्लोक 9: जब बलि महाराज के असुर अनुयायियों ने देखा कि उनके स्वामी ने जिन्होंने यज्ञ सम्पन्न करने का संकल्प कर रखा था। वामनदेव द्वारा तीन पग भूमि माँगे जाने के बहाने सब कुछ गँवा दिया है, तो वे अत्यधिक क्रुद्ध हुए और इस प्रकार बोले।
श्लोक 10: यह वामन निश्चित रूप से ब्राह्मण न होकर ठगराज भगवान् विष्णु है। उसने ब्राह्मण का रूप धारण करके अपने असली रूप को छिपा लिया है और इस तरह यह देवताओं के हित के लिए कार्य कर रहा है।
श्लोक 11: हमारे स्वामी बलि महाराज यज्ञ करने की स्थिति में होने के कारण दण्ड देने की अपनी शक्ति त्याग बैठे हैं। इसका लाभ उठाकर हमारे शाश्वत शत्रु विष्णु ने ब्रह्मचारी भिखारी के वेश में उनका सर्वस्व छीन लिया है।
श्लोक 12: हमारे स्वामी बलि महाराज सदैव सत्य पर दृढ़ रहते हैं और इस समय तो विशेष रूप से क्योंकि उन्हें यज्ञ करने के लिए दीक्षा दी गई है। वे ब्राह्मणों के प्रति सदैव दयालु तथा सदय रहते हैं और कभी भी झूठ नहीं बोल सकते।
श्लोक 13: अतएव इस वामनदेव भगवान् विष्णु को मार डालना हमारा कर्तव्य है। यह हमारा धर्म है और अपने स्वामी की सेवा करने का तरीका है। इस निर्णय के बाद महाराज बलि के असुर अनुयायियों ने वामनदेव को मारने के उद्देश्य से अपने-अपने हथियार उठा लिये।
श्लोक 14: हे राजा! असुरों का सामान्य क्रोध भडक़ उठा, उन्होंने अपने-अपने भाले तथा त्रिशूल अपने हाथों में ले लिये और बलि महाराज की इच्छा के विरुद्ध वे वामनदेव को मारने के लिए आगे बढ़ गये।
श्लोक 15: हे राजा! जब विष्णु के सहयोगियों ने देखा कि असुर सैनिक हिंसा पर उतारू होकर आगे बढ़े आ रहे हैं, तो वे हँसने लगे। उन्होंने अपने हथियार उठाते हुए असुरों को ऐसा प्रयत्न करने से मना किया।
श्लोक 16-17: नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, पतत्त्रिराट् (गरुड़), जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त तथा सात्वत—ये सभी भगवान् विष्णु के संगी थे। वे दस हजार हाथियों के तुल्य बलवान् थे। अब वे असुरों के सैनिकों को मारने लगे।
श्लोक 18: जब बलि महाराज ने देखा कि उनके अपने सैनिक भगवान् विष्णु के अनुचरों द्वारा मारे जा रहे हैं, तो उन्हें शुक्राचार्य का शाप याद आया और उन्होंने अपने सैनिकों को युद्ध जारी रखने से मना कर दिया।
श्लोक 19: हे विप्रचित्ति, हे राहु, हे नेमि! जरा मेरी बात तो सुनो! तुम लोग मत लड़ो। तुरन्त रुक जाओ क्योंकि यह समय हमारे अनुकूल नहीं है।
श्लोक 20: हे दैत्यो! कोई भी व्यक्ति मानवीय प्रयासों से उन भगवान् को परास्त नहीं कर सकता जो समस्त जीवों को सुख तथा दुख देने वाले हैं।
श्लोक 21: परम काल जो भगवान् का प्रतिनिधि है और जो पहले हमारे अनुकूल और देवताओं के प्रतिकूल था, वही काल अब हमारे विरुद्ध है।
श्लोक 22: कोई भी व्यक्ति भौतिक बल, मंत्रियों की सलाह, बुद्धि, राजनय, किला, मंत्र, औषधि, जड़ी-बूटी या अन्य किसी उपाय से भगवान् स्वरूप काल स्वरूप को परास्त नहीं कर सकता।
श्लोक 23: पहले तुम सब ने भाग्य द्वारा शक्ति प्राप्त करके भगवान् विष्णु के ऐसे अनेक अनुयायियों को परास्त किया था। किन्तु आज वे ही अनुयायी हमें परास्त करके शेरों की तरह हर्ष से दहाड़ रहे हैं।
श्लोक 24: जब तक भाग्य हमारे अनुकूल न हो तब तक हम विजय प्राप्त नहीं कर सकेंगे। अतएव हमें उस उपयुक्त काल की प्रतीक्षा करनी चाहिए जब हम उन्हें पराजित कर सकेंगे।
श्लोक 25: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा! अपने स्वामी बलि महाराज के आदेश के अनुसार दैत्यों तथा दानवों के सारे सेनापति ब्रह्माण्ड के निचले भागों में प्रविष्ट हुए जहाँ उन्हें विष्णु के सैनिकों ने खदेड़ दिया था।
श्लोक 26: तत्पश्चात् यज्ञ समाप्त हो जाने के बाद सोमपान के दिन पक्षिराज गरुड़ ने अपने स्वामी की इच्छा जानकर बलि महाराज को वरुणपाश से बन्दी बना लिया।
श्लोक 27: जब बलि महाराज परम शक्तिशाली भगवान् विष्णु द्वारा इस प्रकार बन्दी बना लिये गये तो ब्रह्माण्ड के अधो तथा ऊर्ध्व लोकों की समस्त दिशाओं में विलाप का आर्तनाद हुआ।
श्लोक 28: हे राजा! तब भगवान् वामनदेव अत्यन्त उदार एवं विख्यात बलि महाराज से बोले जिन्हें उन्होंने वरुणपाश से बन्दी बनवा लिया था। यद्यपि बलि महाराज के शरीर की सारी कान्ति जा चुकी थी तो भी वे अपने निर्णय पर अटल थे।
श्लोक 29: हे असुरराज! तुमने मुझे तीन पग भूमि देने का वचन दिया है, किन्तु मैंने तो दो ही पग में सारा ब्रह्माण्ड घेर लिया है। अब बताओ कि मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ?
श्लोक 30: जहाँ तक सूर्य तथा तारों सहित चन्द्रमा चमक रहे हैं और जहाँ तक बादल वर्षा करते हैं, वहाँ तक ब्रह्माण्ड की सारी भूमि आपके अधिकार में है।
श्लोक 31: इन में से मैंने एक पग से भूर्लोक को अपना बना लिया है और अपने शरीर से मैंने सारा आकाश तथा सारी दिशाएँ अपने अधिकार में कर ली हैं। तुम्हारी उपस्थिति में ही मैंने अपने दूसरे पग से उच्च स्वर्गलोक को अपना लिया है।
श्लोक 32: चूँकि तुम अपने वचन के अनुसार दान देने में असमर्थ रहे हो अतएव नियम कहता है कि तुम नरकलोक में रहने के लिए चले जाओ। इसलिए अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेश से अब तुम नीचे जाओ और वहाँ रहो।
श्लोक 33: जो कोई भिखारी को वचन देकर ठीक से दान नहीं देता उसका स्वर्ग जाना या उसकी इच्छा पूरी होना तो दूर रहा वरन् वह नारकीय जीवन में जा गिरता है।
श्लोक 34: अपने वैभव पर वृथा गर्वित होकर तुमने मुझे भूमि देने का वचन दिया, किन्तु तुम अपना वचन पूरा नहीं कर पाये। अतएव अब तुम्हारे वचन (वादे) झूठे हो जाने के कारण तुम्हें कुछ वर्षों तक नारकीय जीवन बिताना होगा।