अध्याय 24: भगवान् का मत्स्यावतार
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में भगवान् के मत्स्यावतार के वर्णन और महाराज सत्यव्रत के एक बाढ़ से बचने का उल्लेख हुआ है। भगवान् स्वांश तथा विभिन्नांश द्वारा अपना विस्तार करते हैं।…
श्लोक 1: महाराज परीक्षित ने कहा : भगवान् हरि नित्य ही अपने दिव्य पद पर स्थित हैं; फिर भी वे इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं और विभिन्न रूपों में अपने आपको प्रकट करते हैं। उनका पहला अवतार एक बड़ी मछली के रूप में हुआ। हे सर्व-शक्तिमान शुकदेव गोस्वामी! मैं आपसे उस मत्स्यावतार की लीलाएँ सुनने का इच्छुक हूँ।
श्लोक 2-3: किस कारण से भगवान् ने कर्म-नियम के अन्तर्गत विविध रूप धारण करने वाले सामान्य जीव की भाँति गर्हित मछली का रूप स्वीकार किया? मछली का रूप निश्चित रूप से गर्हित एवं घोर पीड़ा से पूर्ण होता है। हे प्रभु! इस अवतार का क्या उद्देश्य था? कृपा करके मुझे समझाइये क्योंकि भगवान् की लीलाओं का श्रवण हर एक के लिए मंगलकारी होता है।
श्लोक 4: सूत गोस्वामी ने कहा : जब परीक्षित महाराज ने शुकदेव गोस्वामी से इस प्रकार जिज्ञासा प्रकट की तो उस महान् शक्तिशाली साधु पुरुष ने भगवान् के मत्स्यावतार की लीलाओं का वर्णन करना प्रारम्भ कर दिया।
श्लोक 5: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्! गायों, ब्राह्मणों, देवताओं, भक्तों, वैदिक वाङ्मय, धार्मिक सिद्धान्तों तथा जीवन के उद्देश्य को पूरा करने वाले नियमों की रक्षा करने के लिए भगवान् अवतरित होते हैं।
श्लोक 6: यद्यपि भगवान् कभी मनुष्य रूप में और कभी निम्न पशु के रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु वे विभिन्न प्रकार के वायुमण्डल में से गुजरने वाली वायु की तरह प्रकृति से सदैव परे रहते हैं। प्रकृति के गुणों से परे रहने के कारण वे उच्च तथा निम्न रूपों से प्रभावित नहीं होते।
श्लोक 7: हे राजा परीक्षित! विगत कल्प के अन्त में, ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर ब्रह्मा की निद्रा के कारण रात में प्रलय आ गई और तीनों लोक समुद्र के जल से प्लवित हो गये।
श्लोक 8: ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर जब ब्रह्मा को नींद आने लगी और वे लेटने की इच्छा करने लगे तब उस समय उनके मुख से वेद निकल रहे थे। तभी हयग्रीव नामक महान् राक्षस ने उस वैदिक ज्ञान को चुरा लिया।
श्लोक 9: यह जानकर कि यह कार्य महान् असुर हयग्रीव ने किया है, सर्व-ऐश्वर्यशाली भगवान् हरि ने मछली का रूप धारण किया और उस असुर को मारकर वेदों को बचाया।
श्लोक 10: चाक्षुष मन्वन्तर में सत्यव्रत नाम का एक महान् राजा हुआ जो भगवान् का बड़ा भक्त था। उसने केवल जल-पान को आधार बनाकर तपस्या की।
श्लोक 11: इस (वर्तमान) कल्प में राजा सत्यव्रत बाद में सूर्यलोक के राजा विवस्वान का पुत्र बना और श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुआ। भगवान् की कृपा से उसे मनु का पद प्राप्त हुआ।
श्लोक 12: एक दिन जब राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर जल का तर्पण करके तपस्या कर रहा था, तो उसकी अंजुली के जल में एक छोटी सी मछली प्रकट हुई।
श्लोक 13: हे भरतवंशी राजा परीक्षित! द्रविडदेश के राजा सत्यव्रत ने अपनी अंजुली के जल के साथ उस मछली को नदी के जल में फेंक दिया।
श्लोक 14: उस बेचारी छोटी मछली ने अत्यन्त कृपालु राजा सत्यव्रत से करुणापूर्ण स्वर में कहा : हे दीनों के रक्षक राजा! आप मुझे नदी के जल में क्यों फेंक रहे हैं जहाँ पर अन्य जलचर हैं, जो मुझे मार सकते हैं? मैं उनसे बहुत भयभीत हूँ।
श्लोक 15: राजा सत्यव्रत ने यह न जानते हुए कि यह मछली भगवान् है अपनी प्रसन्नता के लिए सहर्ष उस मछली को संरक्षण प्रदान करने का निर्णय लिया।
श्लोक 16: उस मछली के कारुणिक शब्दों से प्रभावित होकर उस दयालु राजा ने उस मछली को एक जलपात्र में रख लिया और उसे अपने घर ले आया।
श्लोक 17: किन्तु मछली एक ही रात में इतनी बड़ी हो गई कि उसे उस जलपात्र में अपना शरीर इधर- उधर घुमाने में कठिनाई होने लगी। तब उसने राजा से इस प्रकार कहा।
श्लोक 18: “हे मेरे प्रिय राजा! मैं इस जलपात्र में इतनी कठिनाई से रहना पसन्द नहीं करती हूँ। अतएव कृपा करके इससे अच्छा जलाशय ढूँढें जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ।”
श्लोक 19: तत्पश्चात् राजा ने उस मछली को जलपात्र से निकाल कर एक विशाल कुएँ में डाल दिया। किन्तु वह मछली एक क्षण में ही बढक़र तीन हाथ की हो गई।
श्लोक 20: तब मछली ने कहा : हे राजा! यह जलाशय मेरे सुखमय निवास के लिए उपयुक्त नहीं है। कृपया और अधिक विस्तृत जलाशय प्रदान करें क्योंकि मैं आपकी शरण में आई हूँ।
श्लोक 21: हे महाराज परीक्षित! राजा ने उस मछली को कुएँ से निकाला और उसे एक झील में डाल दिया, किन्तु तब उस मछली ने जल के विस्तार से भी अधिक विशाल रूप धारण कर लिया।
श्लोक 22: तब मछली ने कहा : हे राजा! मैं विराट जलचर हूँ और यह जल मेरे लिए तनिक भी उपयुक्त नहीं है। अब कृपा करके मुझे बचाने का कोई उपाय ढूँढ निकालिए। अच्छा हो यदि आप मुझे ऐसी झील के जल में रखें जो कभी न घटे।
श्लोक 23: इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर राजा सत्यव्रत उस मछली को जल के सबसे बड़े आगार में ले आया। किन्तु जब वह भी अपर्याप्त सिद्ध हुआ तो राजा ने अन्त में उस मछली को समुद्र में डाल दिया।
श्लोक 24: समुद्र में फेंके जाते समय मछली ने राजा सत्यव्रत से कहा : हे वीर! इस जल में अत्यन्त शक्तिशाली एवं घातक मगर हैं, जो मुझे खा जायेंगे। अतएव तुम मुझे इस स्थान में मत डालो।
श्लोक 25: मत्स्यरूप भगवान् से इन मधुर वचनों को सुनकर मोहित हुए राजा ने पूछा : आप कौन हैं? आप तो हम सबको मोहित कर रहे हैं।
श्लोक 26: हे प्रभु! एक ही दिन में आपने अपना विस्तार सैकड़ों मील तक करके नदी तथा समुद्र के जल को आच्छादित कर लिया है। इससे पहले मैंने न तो ऐसा जलचर पशु देखा था और न ही सुना था।
श्लोक 27: हे प्रभु! आप निश्चय ही अव्यय भगवान् नारायण श्री हरि हैं। आपने जीवों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही अब जलचर का स्वरूप धारण किया है।
श्लोक 28: हे प्रभु, हे सृष्टि, पालन तथा संहार के स्वामी! हे भोक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान् विष्णु! आप हम जैसे शरणागत भक्तों के नेता तथा गन्तव्य हैं। अतएव मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।
श्लोक 29: आपकी सारी लीलाएँ तथा अवतार निश्चय ही समस्त जीवों के कल्याण के लिए होते हैं। अतएव हे प्रभु! मैं वह प्रयोजन जानना चाहता हूँ जिसके लिए आपने यह मत्स्यरूप धारण किया है।
श्लोक 30: हे कमल की पंखुरियों के समान नेत्रों वाले प्रभु! देहात्मबुद्धि वाले देवताओं की पूजा सभी तरह से व्यर्थ है। चूँकि आप हर एक के परम मित्र तथा प्रियतम परमात्मा हैं अतएव आपके चरणकमलों की पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती। इसलिए आपने मछली का रूप दिखलाया है।
श्लोक 31: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब राजा सत्यव्रत ने इस तरह कहा तो अपने भक्त को लाभ पहुँचाने तथा बाढ़ के जल में अपनी लीलाओं का आनन्द उठाने के लिए युग के अन्त में मछली का रूप धारण करने वाले भगवान् ने इस प्रकार उत्तर दिया।
श्लोक 32: भगवान् ने कहा : हे शत्रुओं को दमन कर सकने वाले राजा! आज से सातवें दिन भू:, भुव:, तथा स्व: ये तीनों लोक बाढ़ के जल में डूब जायेंगे।
श्लोक 33: जब तीनों लोक जल में डूब जायेंगे तो मेरे द्वारा भेजी गई एक विशाल नाव तुम्हारे समक्ष प्रकट होगी।
श्लोक 34-35: हे राजा! तत्पश्चात् तुम सभी तरह की औषधियाँ एवं बीज एकत्र करोगे और उन्हें उस विशाल नाव में लाद लोगे। तब सप्तर्षियों समेत एवं सभी प्रकार के जीवों से घिरकर तुम उस नाव में चढ़ोगे और बिना किसी खिन्नता के तुम अपने संगियों सहित बाढ़ के समुद्र में सुगमता से विचरण करोगे। उस समय ऋषियों का तेज ही एकमात्र प्रकाश होगा।
श्लोक 36: तब ज्योंही नाव तेज हवा से डगमगाने लगे तुम उसे महान् सर्प वासुकि के द्वारा मेरे सींग से बाँध देना क्योंकि मैं तुम्हारे पास ही उपस्थित रहूँगा।
श्लोक 37: हे राजा! नाव में बैठे तुम्हं तथा सारे ऋषियों को खींचते हुए, प्रलय-जल में मैं तब तक विचरण करूँगा जब तक ब्रह्मा की शयन-रात्रि समाप्त नहीं हो जाती।
श्लोक 38: मैं तुम्हें ठीक से सलाह दूँगा और तुम्हारा पक्ष भी लूँगा और मुझ परब्रह्म की महिमाओं के विषय में तुम्हारी जिज्ञासाओं के कारण हर बात तुम्हारे हृदय के भीतर प्रकट होगी। इस तरह तुम मेरे विषय में सब कुछ जान लोगे।
श्लोक 39: राजा को इस प्रकार आदेश देने के बाद भगवान् तुरन्त अन्तर्धान हो गये। तब राजा सत्यव्रत उस काल की प्रतीक्षा करने लगा, जिसका आदेश भगवान् दे गये थे।
श्लोक 40: सन्त राजा ने कुशों के सिरों को पूर्व दिशा की ओर करके उन्हें बिछा दिया और स्वयं उत्तर पूर्व की ओर मुख करके कुशों पर बैठकर उन भगवान् विष्णु का ध्यान करने लगा जिन्होंने मछली का रूप धारण किया था।
श्लोक 41: तत्पश्चात् विशाल बादलों ने झड़ी लगाकर समुद्र के जल को और अधिक चढ़ा दिया। इससे समुद्र बढक़र स्थल के ऊपर बहने लगा और उसने समस्त विश्व को जलमग्न करना आरम्भ कर दिया।
श्लोक 42: ज्योंही सत्यव्रत को भगवान् का आदेश स्मरण आया त्योंही उसे अपनी ओर आती हुई एक नाव दिखी। तब उसने वनस्पतियों तथा लताओं को एकत्र किया और वह साधु ब्राह्मणों को साथ लेकर उस नाव में चढ़ गया।
श्लोक 43: उन सन्त ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर राजा से कहा : हे राजा! भगवान् केशव का ध्यान कीजिए। वे हमें इस आसन्न संकट से उबार लेंगे और हमारे कल्याण की व्यवस्था करेंगे।
श्लोक 44: जब राजा भगवान् का निरन्तर ध्यान कर रहे थे तो प्रलय सागर में एक बड़ी सुनहरी मछली प्रकट हुई। इस मछली के एक सींग था और वह अस्सी लाख मील लम्बी थी।
श्लोक 45: जैसा कि भगवान् पहले आदेश दे चुके थे उसका पालन करते हुए राजा ने वासुकि सर्प को रस्सी बनाकर उस नाव को मछली के सींग में बाँध दिया। फिर सन्तुष्ट होकर भगवान् की स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी।
श्लोक 46: राजा ने कहा : भगवान् की कृपा से उन लोगों को जो अनन्त काल से आत्मज्ञान खो बैठे हैं और इस अविद्या के कारण भौतिक कष्टमय बद्ध जीवन में रह रहें हैं भगवद्भक्तों से भेंट करने का अवसर मिलता है। मैं उन भगवान् को परम आध्यात्मिक गुरु स्वीकार करता हूँ।
श्लोक 47: इस संसार में सुखी बनने की आकांक्षा से मूर्ख बद्धजीव सकाम कर्म करता है जिनसे केवल कष्ट ही मिलते हैं। किन्तु भगवान् की सेवा करने से मनुष्य सुख की ऐसी झूठी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। हे मेरे गुरु! मेरे हृदय से झूठी इच्छाओं की ग्रंथि को काट दें।
श्लोक 48: भवबन्धन से जो छूटना चाहता है उसे भगवान् की सेवा करनी चाहिए और पवित्र तथा अपवित्र कर्मों से युक्त तमोगुण का संसर्ग छोड़ देना चाहिए। इस तरह मनुष्य को अपनी मूल पहचान फिर से प्राप्त होती है, जिस प्रकार अग्नि में तपाने पर चाँदी या सोने का टुकड़ा अपना सारा मल छुड़ा कर शुद्ध हो जाता है। ऐसे अव्यय भगवान्! आप हमारे गुरु बनें क्योंकि आप अन्य सभी गुरुओं के आदि गुरु हैं।
श्लोक 49: न तो सारे देवता, न तथाकथित गुरू, न ही अन्य सारे लोग, स्वतंत्र रूप से या साथ मिलकर, आपकी कृपा के दस हजारवें भाग के बराबर भी कृपा प्रदान कर सकते हैं। अतएव मैं आपके चरणकमलों की शरण लेना चाहता हूँ।
श्लोक 50: जिस प्रकार एक अन्धा पुरुष न देख सकने के कारण दूसरे अन्धे को अपना नायक मान लेता है, उसी तरह जो लोग जीवन-लक्ष्य को नहीं जानते वे किसी न किसी धूर्त तथा मूर्ख को अपना गुरु बना लेते हैं, किन्तु हमारा लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है अतएव हम आपको अपना गुरु स्वीकार करते हैं क्योंकि आप सभी दिशाओं में देखने में समर्थ हैं और सूर्य की तरह सर्वज्ञ हैं।
श्लोक 51: तथाकथित भौतिकतावादी गुरु अपने भौतिकतावादी शिष्यों को आर्थिक विकास एवं इन्द्रियतृप्ति के विषय में उपदेश देता है और ऐसे उपदेशों से मूर्ख शिष्य अज्ञान के भौतिक संसार में पड़े रहते है। किन्तु आप शाश्वत ज्ञान प्रदान करते हैं और बुद्धिमान् व्यक्ति ऐसा ज्ञान प्राप्त करके तुरन्त ही अपनी मूल वैधानिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
श्लोक 52: हे प्रभु! आप सबों के परम हितैषी तथा प्रियतम मित्र, नियन्ता, परमात्मा, परम उपदेशक, परम ज्ञान के दाता तथा समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं। यद्यपि आप हृदय में रहते हैं, किन्तु हृदय में बसी कामेच्छाओं के कारण मूर्ख व्यक्ति आपको समझ नहीं पाता।
श्लोक 53: हे परमेश्वर! आत्म-साक्षात्कार के लिए मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। आप सभी वस्तुओं के परम नियन्ता के रूप में देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। आप अपने उपदेशों से जीवन के प्रयोजन को प्रकट करते हुए कृपया मेरे हृदय की ग्रंथि को काट दीजिये और मुझे जीवन का लक्ष्य बतलाइये।
श्लोक 54: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब सत्यव्रत ने मत्स्य रूप धारण करने वाले भगवान् से इस प्रकार प्रार्थना की तो उसको बाढ़ के जल में विचरण करते हुए भगवान् ने परम सत्य के विषय में उपदेश दिया।
श्लोक 55: इस प्रकार भगवान् ने राजा सत्यव्रत को वह आध्यात्मिक विज्ञान बतलाया जो सांख्ययोग कहलाता है, जिससे पदार्थ तथा आत्मा का अन्तर (अर्थात् भक्तियोग) जाना जाता है। इसके साथ ही भगवान् ने पुराणों (प्राचीन इतिहास) तथा संहिताओं में पाये जाने वाले उपदेश भी बतलाये। भगवान् ने इन सारे ग्रंथों में अपनी व्याख्या की है।
श्लोक 56: राजा सत्यव्रत ने ऋषियों सहित नाव में बैठे-बैठे आत्म-साक्षात्कार के विषय में भगवान् के उपदेशों को सुना। ये सारे उपदेश शाश्वत वैदिक साहित्य (ब्रह्म) से थे। इस तरह राजा तथा ऋषियों को परम सत्य (परब्रह्म) के विषय में कोई संशय नहीं रहा।
श्लोक 57: (स्वायंभुव मनु के काल में) पिछली बाढ़ के अन्त में भगवान् ने हयग्रीव नामक असुर को मारा और ब्रह्मा के निद्रा से जगने पर उन्हें सारा वैदिक साहित्य प्रदान कर दिया।
श्लोक 58: भगवान् विष्णु की कृपा से राजा सत्यव्रत को सारा वैदिक ज्ञान प्राप्त हो गया और इस काल में उसने अब सूर्यदेव के पुत्र वैवस्वत मनु के रूप में जन्म लिया है।
श्लोक 59: महान् राजा सत्यव्रत तथा भगवान् विष्णु के मत्स्यावतार से सम्बन्धित यह कथा एक महान् दिव्य आख्यान है। जो भी इसे सुनता है, वह पापमय जीवन के फलों से छूट जाता है।
श्लोक 60: जो कोई मत्स्य अवतार तथा राजा सत्यव्रत के इस वर्णन को सुनाता है उसकी सारी आकांक्षाएं पूरी होंगी और वह निश्चित रूप से भगवद्धाम वापस जाएगा।
श्लोक 61: मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ जिन्होंने उस विशाल मछली का रूप धारण करने का बहाना किया जिसने ब्रह्मा के निद्रा से जगने पर उन्हें वैदिक साहित्य वापस लाकर दिया और राजा सत्यव्रत तथा महर्षियों को वैदिक साहित्य का सार कह समझाया।
श्रीमद भागवत कथा की स्कन्ध-8 समाप्त।