अध्याय 6: देवताओं तथा असुरों द्वारा सन्धि की घोषणा
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बताया गया है कि जब देवताओं ने भगवान् की स्तुति की तो वे उनके समक्ष किस प्रकार प्रकट हुए। भगवान् की सलाह के अनुसार देवताओं ने समुद्र-मन्थन से अमृत…
श्लोक 1: श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित! देवताओं तथा ब्रह्मा जी द्वारा इस प्रकार स्तुतियों से पूजित भगवान् हरि उन सब के समक्ष प्रकट हो गये। उनका शारीरिक तेज एकसाथ हजारों सूर्यों के उदय होने के समान था।
श्लोक 2: भगवान् के तेज से सारे देवताओं की दृष्टि चौंधिया गई। वे न तो आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी देख सके, न ही अपने आपको देख सके। अपने समक्ष उपस्थित भगवान् को देखना तो दूर रहा।
श्लोक 3-7: शिवजी सहित ब्रह्माजी ने भगवान् के निर्मल शारीरिक सौन्दर्य को देखा जिनका श्यामल शरीर मरकत मणि के समान है, जिनकी आँखें कमल के फूल के भीतरी भाग जैसी लाल-लाल हैं, जो पिघले सोने जैसे पीले वस्त्र धारण किये हैं और जिनका समूचा शरीर आकर्षक ढंग से सज्जित है। उन्होंने उनके सुन्दर मुस्काते कमल जैसे मुखमण्डल को देखा जिसके ऊपर बहुमूल्य रत्नों से जडि़त मुकुट था। भगवान् की भौहें आकर्षक हैं और उनकी गालों पर कान के कुण्डल शोभित रहते हैं। ब्रह्मा जी तथा शिव जी ने भगवान् की कमर में पेटी, उनकी बाहों में बाजूबंद, वक्षस्थल पर हार और पाँवों में पायल देखे। भगवान् फूल की मालाओं से अलंकृत थे, उनकी गर्दन में कौस्तुभ मणि अलंकृत थी और उनके साथ लक्ष्मीजी थीं तथा वे चक्र, गदा इत्यादि निजी आयुध लिए हुए थे। जब ब्रह्मा जी ने शिवजी तथा अन्य देवताओं के साथ भगवान् के स्वरूप को इस तरह देखा तो सब ने भूमि पर गिरकर उन्हें प्रणाम किया।
श्लोक 8: ब्रह्माजी ने कहा : यद्यपि आप अजन्मा हैं, किन्तु अवतार के रूप में आपका प्राकट्य तथा अन्तर्धान सदैव चलता रहता है। आप सदैव भौतिक गुणों से मुक्त रहते हैं और सागर के समान दिव्य आनन्द के आश्रय हैं। अपने दिव्य स्वरूप में नित्य रहते हुए आप अत्यन्त सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं। अतएव हम आपको जिनका अस्तित्व अचिन्त्य है। सादर नमस्कार करते हैं।
श्लोक 9: हे पुरुषश्रेष्ठ, हे परम नियन्ता! जो लोग सचमुच परम सौभाग्य की कामना करते हैं, वे वैदिक तंत्रों के अनुसार आपके इसी रूप की पूजा करते हैं। हे प्रभु! हम आपमें तीनों लोकों को देख सकते हैं।
श्लोक 10: सदैव पूर्ण स्वतंत्र रहने वाले मेरे प्रभु! यह सारा दृश्य जगत आपसे उत्पन्न होता है, आप पर टिका रहता है और आपमें तल्लीन हो जाता है। आप ही प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अन्त हैं जिस तरह पृथ्वी मिट्टी के पात्र का कारण है; वह उस पात्र को आधार प्रदान करती है और जब पात्र टूट जाता है, तो अन्तत: उसे अपने में मिला लेती है।
श्लोक 11: हे परब्रह्म! आप अपने में स्वतंत्र हैं और दूसरों से सहायता नहीं लेते। आप अपनी शक्ति से इस दृश्य जगत का सृजन करके इसमें प्रवेश कर जाते हैं। जो लोग कृष्णभावनामृत में बढ़े-चढ़े हैं, जो प्रामाणिक शास्त्रों से भलीभाँति परिचित हैं और जो भक्तियोग के अभ्यास से सारे भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाते हैं, वे यह शुद्ध मन से देख सकते हैं कि आप भौतिक गुणों के रूपान्तरों के भीतर रहते हुए भी इन गुणों से अछूते रहते हैं।
श्लोक 12: जिस प्रकार काठ से अग्नि, गाय के थन से दूध, भूमि से अन्न तथा जल और औद्योगिक उद्यम से जीविका के लिए समृद्धि प्राप्त की जा सकती है उसी तरह इस भौतिक जगत में मनुष्य भक्तियोग के अभ्यास द्वारा आपकी कृपा प्राप्त कर सकता है या बुद्धि से आपके पास पहुँच सकता है। जो पुण्यात्मा हैं, वे इसकी पुष्टि करते हैं।
श्लोक 13: जंगल की अग्नि से पीडि़त हाथी गंगाजल प्राप्त होने पर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। इसी प्रकार, हे प्रभु! कमलनाभ प्रभु! चूँकि आप हमारे समक्ष अब प्रकट हुए हैं अतएव हम दिव्य सुख का अनुभव कर रहे हैं। हमें आपके दर्शन की दीर्घकाल से आकांक्षा थी अतएव आपका दर्शन पाकर हमने अपने जीवन के चरम लक्ष्य को पा लिया है।
श्लोक 14: हे भगवान्! हम विविध देवता, इस ब्रह्माण्ड के निर्देशक आपके चरणकमलों के निकट आये हैं। जिस प्रयोजन से हम आये हैं कृपया उसे पूरा करें। आप भीतर तथा बाहर से हर वस्तु के साक्षी हैं। आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है, अतएव आपको किसी बात के लिए पुन: सूचित करना व्यर्थ है।
श्लोक 15: मैं (ब्रह्मा), शिवजी तथा सारे देवताओं के साथ-साथ, दक्ष जैसे प्रजापति भी चिनगारियाँ मात्र हैं, जो मूल अग्नि स्वरूप आपके द्वारा प्रकाशित हैं। चूँकि हम आपके कण हैं अतएव हम अपनी कुशलता के विषय में समझ ही क्या सकते हैं? हे परमेश्वर! हमें मोक्ष का वह साधन प्रदान करें जो ब्राह्मणों तथा देवताओं के लिए उपयुक्त हो।
श्लोक 16: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब ब्रह्मा समेत सारे देवताओं ने भगवान् की स्तुति की तो वे उनके वहाँ आने का प्रयोजन समझ गये। अतएव भगवान् ने बादल की गर्जना के समान गम्भीर वाणी में उन देवताओं को उत्तर दिया जो हाथ जोडक़र सावधानी से वहाँ खड़े थे।
श्लोक 17: यद्यपि देवताओं के स्वामी भगवान् देवताओं के कार्यकलापों को स्वयं सम्पन्न करने में समर्थ थे फिर भी उन्होंने समुद्र-मन्थन की लीला का आनन्द उठाना चाहा। अतएव वे इस प्रकार बोले।
श्लोक 18: भगवान् ने कहा! हे ब्रह्मा, शिव तथा अन्य देवताओ! तुम सभी ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो क्योंकि मैं जो कुछ कहूँगा उससे तुम सब का कल्याण होगा।
श्लोक 19: जब तक तुम उन्नति नहीं कर रहे ही, तुम सब को दानवों तथा असुरों के साथ सन्धि कर लेनी चाहिए क्योंकि सम्प्रति समय उनके अनुकूल है।
श्लोक 20: हे देवताओ! अपना हित इतना महत्वपूर्ण होता है कि मनुष्य को अपने शत्रुओं से सन्धि भी करनी पड़ सकती है। अपने हित (लाभ) के लिए मनुष्य को सर्प तथा चूहे के तर्क के अनुसार कार्य करना चाहिए।
श्लोक 21: तुरन्त ही अमृत उत्पन्न करने का प्रयत्न करो जिसे पीकर मरणासन्न व्यक्ति अमर हो जाये।
श्लोक 22-23: हे देवताओ! क्षीरसागर में सभी प्रकार की वनस्पतियाँ, तृण, लताएँ तथा औषधियाँ डाल दो। तब मेरी सहायता से मन्दर पर्वत को मथानी तथा वासुकि को मथने की रस्सी बनाकर अविचल चित्त से क्षीरसागर का मन्थन करो। इत तरह से दैत्यगण श्रम कार्य में लग जायेंगे, किन्तु तुम देवताओं को वास्तविक फल—समुद्र से उत्पन्न अमृत—प्राप्त होगा।
श्लोक 24: हे देवताओ! धैर्य तथा शान्ति से हर कार्य सम्पन्न किया जा सकता है, किन्तु यदि कोई क्रोध से क्षुब्ध रहे तो लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पाती। अतएव असुरगण जो भी माँगें उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लो।
श्लोक 25: क्षीरसागर से कालकूट नामक विष उत्पन्न होगा, किन्तु तुम्हें उससे डरना नहीं है और जब समुद्र के मन्थन से विविध उत्पाद प्राप्त हों तो तुम्हें उनको प्राप्त करने के लिए न तो लालच करना होगा, न ही उत्सुक होना होगा, और न ही क्रुद्ध होना होगा।
श्लोक 26: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा परीक्षित! देवताओं को इस प्रकार से सलाह देकर समस्त जीवों में श्रेष्ठ, स्वच्छन्द रहने वाले भगवान् उनके समक्ष से अन्तर्धान हो गये।
श्लोक 27: तब भगवान् को सादर नमस्कार करने के बाद ब्रह्मा जी तथा शिवजी अपने-अपने धामों को लौट गये। फिर सारे देवता महाराज बलि के पास गये।
श्लोक 28: दैत्यों में सर्वाधिक विख्यात महाराज बलि भलीभाँति जानते थे कि कब सन्धि करनी चाहिए और कब युद्ध करना चाहिए। इस तरह से यद्यपि उनके सेनानायक विक्षुब्ध थे और देवताओं का वध कर देना चाहते थे, किन्तु जब महाराज बलि ने देखा कि सारे देवता उनके पास आक्रमक प्रवृत्ति त्याग कर आ रहे हैं, तो उन्होंने अपने सेनानायकों को मना कर दिया कि वे देवताओं को मारें नहीं।
श्लोक 29: देवगण विरोचन के पुत्र बलि महाराज के पास गये और उनके निकट बैठ गये। उस समय बलि महाराज की रक्षा असुरों के सेनानायकों द्वारा की जा रही थी और वे अत्यन्त ऐश्वर्यशाली थे। उन्होंने सारे ब्रह्माण्डों को जीत लिया था।
श्लोक 30: अत्यन्त बुद्धिमान् एवं देवताओं के राजा इन्द्र ने बलि महाराज को विनीत शब्दों से प्रसन्न कर लेने के बाद उन सारे प्रस्तावों को अत्यन्त विनयपूर्वक प्रस्तुत किया जिन्हें भगवान् विष्णु ने उसे सिखलाया था।
श्लोक 31: राजा इन्द्र द्वारा रखे गये प्रस्तावों को बलि महाराज ने, उनके सहायकों ने, जिनमें शम्बर तथा अरिष्टनेमि प्रमुख थे एवं त्रिपुर के अन्य सारे निवासियों ने तुरन्त ही मान लिया।
श्लोक 32: हे शत्रुओं को दण्ड देने वाले महाराज परीक्षित! तब देवताओं तथा असुरों ने परस्पर सन्धि कर ली और उन्होंने इन्द्र द्वारा प्रस्तावित अमृत उत्पन्न करने की योजना को बड़े ही उद्यमपूर्वक कार्यान्वित करने की व्यवस्था की।
श्लोक 33: तत्पश्चात् देवताओं तथा अत्यन्त शक्तिशाली एवं लम्बी-लम्बी बलशाली भुजाओं वाले असुरों ने अत्यन्त बलपूर्वक मन्दर पर्वत को उखाड़ा और जोरों से चिल्लाते हुए वे उसे क्षीरसागर की ओर ले चले।
श्लोक 34: विशाल पर्वत को दूर तक ले जाने के कारण राजा इन्द्र, महाराज बलि तथा अन्य सारे देवता एवं असुर थक गये। पर्वत को ले जाने में असमर्थ होने के कारण उन्होंने उसे रास्ते में छोड़ दिया।
श्लोक 35: यह पर्वत जो मन्दर के नाम से विख्यात था, अत्यन्त भारी था तथा सोने का बना था, वहीं गिर पड़ा और इस ने अनेक देवताओं तथा असुरों को कुचल डाला।
श्लोक 36: देवता तथा असुर हताश तथा विक्षुब्ध थे और उनकी भुजाएँ, जाँघें तथा कंधे टूट गये थे। अतएव गरुड़ की पीठ पर सवार सर्वज्ञ भगवान् वहाँ पर प्रकट हुए।
श्लोक 37: यह देखकर कि अधिकांश दानव तथा देवता पर्वत के गिरने से कुचले गये हैं, भगवान् ने उन सब पर अपनी दृष्टि दौड़ाई और उन्हें जीवित कर दिया। इस प्रकार वे शोक से रहित हो गये और उनके शरीरों के घाव भी जाते रहे।
श्लोक 38: फिर भगवान् ने पर्वत को अत्यन्त सरलतापूर्वक एक हाथ से उठाकर गरुड़ की पीठ पर रख दिया। तब वे स्वयं गरुड़ पर सवार हुए और देवताओं तथा असुरों से घिरे हुए क्षीरसागर चले गये।
श्लोक 39: तत्पश्चात् पक्षीराज गरुड़ ने अपने कन्धे से मन्दर पर्वत को उतारा और वे उसे जल के निकट ले गये। तब भगवान् ने उससे उस स्थान से चले जाने को कहा और वह चला गया।