अध्याय 7: शिवजी द्वारा विषपान से ब्रह्माण्ड की रक्षा
संक्षेप विवरण: सातवें अध्याय का सारांश इस प्रकार है। भगवान् ने कच्छप का अवतार लेकर समुद्र में गहरी डुबकी लगाई जिससे वे मन्दर पर्वत को अपनी पीठ पर धारण कर सकें। समुद्र मन्थन…
श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित! देवों तथा असुरों ने सर्पराज वासुकि को बुलवाया और उसे वचन दिया कि वे उसे अमृत में भाग देंगे। उन्होंने वासुकि को मन्दर पर्वत के चारों ओर मथने की रस्सी की भाँति लपेट दिया और क्षीरसागर के मन्थन द्वारा अमृत उत्पन्न करने का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक प्रयत्न किया।
श्लोक 2: भगवान् अजित ने सर्प के अगले हिस्से को पकड़ लिया और तब सारे देवताओं ने उनके पीछे होकर उसे पकड़ लिया।
श्लोक 3: दैत्यों के नेताओं ने पूँछ पकडऩा मूर्खतापूर्ण समझा क्योंकि यह सर्प का अशुभ अंग है। इस के स्थान पर वे अगला हिस्सा पकडऩा चाहते थे जिसे भगवान् तथा देवताओं ने पकड़ रखा था क्योंकि वह भाग शुभ तथा महिमा-युक्त था। इस प्रकार असुरों ने इस दलील के साथ कि वे सभी वैदिक ज्ञान में अत्यधिक बढ़े-चढ़े हैं और अपने जन्म तथा कार्यकलापों के लिए विख्यात हैं, आपत्ति उठाई कि वे सर्प के अगले हिस्से को पकडऩा चाहते हैं।
श्लोक 4: इस प्रकार असुरगण देवताओं की इच्छा का विरोध करते हुए मौन रहे। भगवान् असुरों के मनोभावों को ताड़ गये अतएव वे मुस्काने लगे। उन्होंने विचार-विमर्श किये बिना तुरन्त ही साँप की पूँछ पकड़ कर उनका प्रस्ताव मान लिया और सारे देवता उनके साथ हो लिये।
श्लोक 5: साँप को किस स्थान पर पकडऩा है, यह तय करने के पश्चात् कश्यप के पुत्र देवता तथा असुर दोनों ने क्षीरसागर के मन्थन से अमृत पाने की लालसा से अपना-अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया।
श्लोक 6: हे पाण्डुवंशी! जब क्षीरसागर में मन्दर पर्वत को इस तरह मथानी के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा था, तो उसका कोई आधार न था अतएव असुरों तथा देवताओं के बलिष्ठ हाथों द्वारा पकड़ा रहने पर भी वह जल में डूब गया।
श्लोक 7: चूँकि पर्वत दैवी शक्ति से डूबा था अतएव देवता तथा असुरगण निराश थे और उनके चेहरे कुम्हला गये प्रतीत होते थे।
श्लोक 8: भगवदिच्छा से जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी उसे देखकर असीम शक्तिशाली एवं अच्युत संकल्प वाले भगवान् ने कछुए का अद्भुत रूप धारण किया और जल में प्रविष्ट होकर विशाल मन्दर पर्वत को उठा लिया।
श्लोक 9: जब देवताओं तथा असुरों ने देखा कि मन्दर पर्वत उठाया गया है, तो वे प्रफुल्लित हो गए और पुन: मन्थन करने के लिए प्रोत्साहित हुए। यह पर्वत विशाल कछुवे की पीठ पर टिका था, जो एक विशाल द्वीप की भाँति आठ लाख मील तक फैला हुआ था।
श्लोक 10: हे राजा! जब देवताओं तथा असुरों ने अपने बाहुबल से अद्भुत कछुवे की पीठ पर स्थित मन्दर पर्वत को घुमा दिया तो कछुवे ने पर्वत के इस घूमने को अपना शरीर खुजलाने का साधन मान लिया। इससे उसे अत्यन्त सुखप्रद अनुभूति हुई।
श्लोक 11: तत्पश्चात् भगवान् विष्णु, उन सबको प्रोत्साहित करने एवं विभिन्न प्रकार से शक्ति देने के लिए, असुरों में रजोगुण के रूप में, देवताओं में सतोगुण के रूप में तथा वासुकि में तमोगुण के रूप में प्रविष्ट हो गये।
श्लोक 12: तब मन्दर पर्वत की चोटी पर भगवान् ने अपने आपको हजारों भुजाओं सहित प्रकट किया जो अन्य विशाल पर्वत की तरह लग रहे थे और एक हाथ से मन्दर पर्वत को पकड़े रखा। तब ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा अन्य देवताओं ने उच्च लोकों में भगवान् की स्तुति की और उन पर फूलों की वर्षा की।
श्लोक 13: देवता तथा असुर अमृत के लिए मानो मतवाले होकर कार्य कर रहे थे क्योंकि भगवान् ने उन्हें प्रोत्साहित कर रखा था; वे पर्वत के ऊपर और नीचे सभी जगह थे और वे देवताओं, असुरों, वासुकि तथा पर्वत में भी प्रविष्ट हो गए थे। देवताओं तथा असुरों के बल से, क्षीरसागर इतनी शक्ति के साथ विलोडि़त हो रहा था कि जल के सारे मगरमच्छ अत्यधिक विचलित हो उठे। तो भी समुद्र का मन्थन इस तरह चलता रहा।
श्लोक 14: वासुकि के हजारों नेत्र तथा मुख थे। उसके मुख से धुँआ तथा अग्नि की लपटें निकल रही थीं जिससे पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुरगण पीडि़त हो रहे थे। इस तरह सारे असुर जो जंगल की आग से जले हुए सरल वृक्ष की भाँति प्रतीत हो रहे थे धीरे-धीरे शक्तिहीन हो गए।
श्लोक 15: चूँकि वासुकि की दहकती साँस से देवता भी प्रभावित हुए थे अतएव उनकी शारीरिक कान्ति घट गई और उनके वस्त्र, मालाए, आयुध तथा उनके मुखमण्डल धुएँ से काले पड़ गये। किन्तु भगवत्कृपा से समुद्र के ऊपर बादल प्रकट हो गए और वे मूसलाधार वर्षा करने लगे। समुद्री लहरों से जल के कण लेकर मन्द समीर बहने लगे जिससे देवताओं को राहत मिल सके।
श्लोक 16: जब श्रेष्ठतम देवताओं तथा असुरों के द्वारा इतना उद्यम करने पर भी क्षीरसागर से अमृत नहीं निकला तो स्वयं भगवान् अजित ने समुद्र को मथना प्रारम्भ किया।
श्लोक 17: भगवान् श्याम बादल की भाँति प्रकट हो रहे थे। वे पीले वस्त्र पहने थे, उनके कान के कुंडल बिजली की तरह चमक रहे थे और उनके बाल कन्धों पर बिखरे हुए थे। वे फूलों की माला पहने थे और उनकी आँखे गुलाबी थीं। विश्वभर में अभय देने वाली अपनी बलिष्ठ यशस्वी भुजाओं से उन्होंने वासुकि को पकड़ लिया और वे मन्दर पर्वत को मथानी बनाकर समुद्र का मन्थन करने लगे। जब वे इस प्रकार व्यस्त थे तो वे इन्द्रनील नामक सुन्दर पर्वत की भाँति प्रतीत हो रहे थे।
श्लोक 18: मछलियाँ, हांगर, कछुवे तथा सर्प अत्यन्त विचलित एवं क्षुब्ध थे। सारा समुद्र उत्तेजित हो उठा और व्हेल, समुद्री हाथी, घडिय़ाल तथा तिमिङ्गिल मछली जैसे बड़े-बड़े जलचर सतह पर आ गये। जब इस प्रकार से समुद्र-मन्थन हो रहा था, तो इससे सर्वप्रथम हालहल नामक घातक विष उत्पन्न हुआ।
श्लोक 19: हे राजा! जब वह उग्र विष ऊपर नीचे तथा सभी दिशाओं में वेग के साथ फैलने लगा तो सारे देवता भगवान् समेत शिवजी (सदाशिव) के पास गये। अपने को असुरक्षित तथा अत्यन्त भयभीत पाकर वे सब उनकी शरण मांगने लगे।
श्लोक 20: देवताओं ने शिवजी को अपनी पत्नी भवानी सहित कैलाश पर्वत की चोटी पर तीनों लोकों के मंगलमय अभ्युदय हेतु तपस्या करते हुए देखा। मुक्ति की कामना करने वाले मुनि-गण उनकी पूजा कर रहे थे। देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और आदरपूर्वक प्रार्थना की।
श्लोक 21: प्रजापतियों ने कहा : हे देवश्रेष्ठ महादेव, हे समस्त जीवों के परमात्मा तथा उनकी सुख- समृद्धि के कारण! हम आपके चरणकमलों की शरण में आये हैं। अब आप तीनों लोकों में फैलने वाले इस उग्र विष से हमारी रक्षा करें।
श्लोक 22: हे प्रभु! आप सारे विश्व के बन्धन तथा मोक्ष के कारण हैं क्योंकि आप इसके शासक हैं। जो लोग आध्यात्मिक चेतना में बढ़े-चढ़े हैं, वे आपकी शरण में जाते हैं, अतएव आप उनके कष्टों को दूर करने वाले हैं और उनकी मुक्ति के भी आप ही कारण हैं। अतएव हम आपकी पूजा करते हैं।
श्लोक 23: हे प्रभु! आप स्वयं-प्रकाशित तथा सर्वश्रेष्ठ हैं। आप अपनी निजी शक्ति से इस भौतिक जगत का सृजन करते हैं और जब आप सृष्टि, पालन तथा संहार का कार्य करते हैं, तो ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के नाम धारण कर लेते हैं।
श्लोक 24: आप समस्त कारणों के कारण, आत्म-प्रकाशित, अचिन्त्य, निराकार ब्रह्म हैं, जो मूलत: परब्रह्म हैं। आप इस दृश्य जगत में विविध शक्तियों को प्रकट करते हैं।
श्लोक 25: हे स्वामी! आप वैदिक ज्ञान के मूल स्रोत हैं। आप भौतिक सृष्टि, प्राण, इन्द्रियों, पाँच तत्त्वों, तीन गुणों तथा महत् तत्त्व के मूल कारण हैं। आप नित्य काल, संकल्प तथा सत्य और ऋत कही जाने वाली दो धार्मिक प्रणालियाँ हैं। आप तीन अक्षरों—अ, उ तथा म् वाले ॐ शब्द के आश्रय हैं।
श्लोक 26: हे समस्त लोकों के पिता! विद्वान लोग जानते हैं कि अग्नि आपका मुख है, पृथ्वी आपके चरणकमल हैं, आप निखिल देवरूप हैं, नित्य काल आपकी गति है, सारी दिशाएँ आपके कान हैं और जल का स्वामी वरुण आपकी जीभ है।
श्लोक 27: हे प्रभु! आकाश आपकी नाभि है, वायु आपकी श्वसन क्रिया है, सूर्य आपकी आँखे हैं तथा जल आपका वीर्य है। आप समस्त प्रकार के उच्च तथा निम्न जीवों के आश्रय हैं। चन्द्रदेव आपका मन है। उच्चतर लोक मण्डल आपका सिर है।
श्लोक 28: हे प्रभु! आप साक्षात् तीनों वेद हैं। सातों समुद्र आपके उदर हैं और पर्वत आपकी हड्डियाँ है। सारी औषधियाँ, लताएँ तथा वनस्पतियाँ आपके शरीर के रोएँ हैं। गायत्री जैसे वैदिक मंत्र आपके शरीर के सात कोश हैं और वैदिक धर्म पद्धति आपका हृदय है।
श्लोक 29: हे प्रभो! पाँच महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र आपके पाँच मुखों के द्योतक हैं जिनसे अड़तीस महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र उत्पन्न हुए हैं। आप शिव नाम से विख्यात स्वयं प्रकाशित हैं। आप परमात्मा नाम से प्रत्यक्ष परम सत्य के रूप में स्थित हैं।
श्लोक 30: हे भगवान्! आपकी छाया अधर्म में दिखती है, जिससे नाना प्रकार की अधार्मिक सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं। प्रकृति के तीनों गुण—सत्त्व, रज तथा तमो—आपके तीन नेत्र हैं। छन्दों से युक्त सारे वैदिक ग्रंथ आपसे उद्भूत हैं क्योंकि उनके संग्रहकर्ताओं ने आपकी कृपादृष्टि प्राप्त करके ही उन शास्त्रों को लिखा।
श्लोक 31: हे गिरीश! चूँकि निराकार ब्रह्म तेज सतो, रजो तथा तमो गुणों से परे है अतएव इस भौतिक जगत के विभिन्न निदेशक (लोकपाल) न तो इसकी प्रशंसा कर सकते हैं न ही यह जान सकते हैं कि वह कहाँ है। वह ब्रह्मा, विष्णु या स्वर्ग के राजा महेन्द्र द्वारा भी ज्ञेय नहीं है।
श्लोक 32: जब आपकी आँखों से उद्भूत लपटों तथा चिनगारियों से प्रलय होता है, तो सारी सृष्टि जलकर राख हो जाती है। तो भी आपको पता नहीं चलता कि यह कैसे होता है। अतएव आपके द्वारा दक्ष-यज्ञ, त्रिपुरासुर तथा कालकूट विष विनष्ट किये जाने के विषय में क्या कहा जा सकता है? ऐसे कार्यकलाप आपको अर्पित की जाने वाली स्तुतियों के विषय नहीं बन सकते।
श्लोक 33: सारे विश्व को उपदेश देने वाले महान् आत्मतुष्ट व्यक्ति अपने हृदयों में आपके चरणकमलों का निरन्तर चिन्तन करते हैं, किन्तु जब आपकी तपस्या को न जानने वाले व्यक्ति आपको उमा के साथ विचरते देखते हैं, तो वे आपको भ्रमवश कामी समझते हैं अथवा जब वे आपको श्मशान में घूमते हुए देखते हैं, तो भ्रमवश वे आपको अत्यन्त नृशंस तथा ईर्ष्यालु समझते हैं। निस्सन्देह, वे निर्लज्ज हैं। वे आपके कार्यकलापों को कभी नहीं समझ सकते।
श्लोक 34: ब्रह्मा जी तथा अन्य देवतागण जैसे व्यक्ति तक आपकी स्थिति नहीं समझ सकते क्योंकि आप चर तथा अचर सृष्टि से भी परे हैं। चूँकि आपको सही रूप में कोई नहीं समझ सकता तो फिर भला कोई किस तरह आपकी स्तुति कर सकता है? यह असम्भव है। जहाँ तक हमारा सम्बन्ध है, हम ब्रह्मा जी की सृष्टि के प्राणी हैं। अतएव ऐसी परिस्थितियों में हम आपकी ठीक से स्तुति नहीं कर सकते, किन्तु हमने अपनी बुद्धि के अनुसार अपनी भावनाएँ व्यक्त की हैं।
श्लोक 35: हे महान् शासक! हमारे लिए आपके असली स्वरूप को समझ पाना असम्भव है। जहाँ तक हम देख पाते हैं, आपकी उपस्थिति हरएक के लिए सुख-समृद्धि लाती है। इसके परे, कोई भी आपके कार्यकलापों को नहीं समझ सकता। हम इतना ही देख सकते हैं, इससे अधिक कुछ भी नहीं।
श्लोक 36: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : शिवजी सारे जीवों के प्रति सदैव उपकारी हैं। जब उन्होंने देखा कि सारे जीव विष के सर्वत्र फैलने के कारण अत्यधिक उद्विग्न हैं, तो वे अत्यन्त दयार्द्र हो उठे। अत: उन्होंने अपनी नित्य संगिनी सती से इस प्रकार कहा।
श्लोक 37: शिवजी ने कहा : हे प्रिय भवानी! जरा देखो तो किस तरह ये सारे जीव क्षीरसागर के मन्थन से उत्पन्न विष के कारण संकट में पड़ गये हैं!
श्लोक 38: जीवन-संर्घष में लगे समस्त जीवों को सुरक्षा प्रदान करना मेरा कर्तव्य है। निश्चय ही स्वामी का कर्तव्य है कि वह पीडि़त अधीनस्थों की रक्षा करे।
श्लोक 39: भगवान् की माया से मोहग्रस्त सामान्य लोग सदैव एक दूसरे के प्रति शत्रुता में लगे रहते हैं। किन्तु भक्तगण अपने नश्वर शरीरों को भी संकट में डालकर उनकी रक्षा करने का प्रयास करते हैं।
श्लोक 40: हे मेरी भद्र पत्नी भवानी! जब कोई अन्यों के लिए उपकार के कार्य करता है, तो भगवान् हरि अत्यधिक प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न होते हैं, तो मैं भी अन्य सारे प्राणियों के साथ अत्यधिक प्रसन्न होता हूँ। अतएव मुझे यह विष पीने दो क्योंकि मेरे कारण सारे जीव इस प्रकार सुखी हो सकेंगे।
श्लोक 41: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार भवानी को सूचित करके शिवजी वह विष पीने लगे और भवानी ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे दी क्योंकि वे शिवजी की क्षमताओं को भलीभाँति जानती थीं।
श्लोक 42: तत्पश्चात् मानवता के लिए शुभ तथा उपकारी कार्य में समर्पित शिवजी ने कृपा करके सारा विष अपनी हथेली में रखा और वे उसे पी गये।
श्लोक 43: अपयश के कारण क्षीरसागर से उत्पन्न विष ने मानो अपनी शक्ति का परिचय शिवजी के गले में नीली रेखा बनाकर दिया हो। किन्तु अब वही रेखा भगवान् का आभूषण मानी जाती है।
श्लोक 44: कहा जाता है कि सामान्य लोगों के कष्टों के कारण महापुरुष सदैव स्वेच्छा से कष्ट भोगना स्वीकार करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में स्थित भगवान् के पूजने की यह सर्वोच्च विधि मानी जाती है।
श्लोक 45: इस कार्य को सुनकर भवानी (दक्षकन्या), ब्रह्मा, विष्णु समेत सामान्य लोगों ने देवताओं द्वारा पूजित और लोगों को वरदान देने वाले शिवजी के इस कार्य की अत्यधिक प्रशंसा की।
श्लोक 46: जब शिवजी विषपान कर रहे थे उस समय उनके हाथ से जो थोड़ा सा विष गिरकर छितर गया उसे बिच्छू, सर्प, विषैली औषधियाँ तथा अन्य पशु जिनका दंश विषैला होता है पी गए।