तेनाली का प्रयोग
तेनाली की बुध्दिमानी व चतुराई के कारण सभी उसे बहुत प्यार करते थे। परन्तु राजगुरु उससे ईर्ष्या करते थे। राजगुरु के साथ कुछ चापलूस दरबारी भी थे, जो उनके विचारों से सहमत थे। एक दिन सभी ने मिलकर तेनाली को अपमानित करने के लिए एक योजना बनाई। अगले दिन दरबार में राजगुरु राजा कॄष्णदेव राय से बोले, “महाराज, मैंने सुना है कि तेनाली ने पारस पत्थर बनाने की विधा सीखी है। पारस पत्थर जादुई पत्थर है, जिससे लोहा भी सोना बन जाता है।” “यदि ऐसा है, तो राजा होने के नाते वह पत्थर प्रजा की भलाई के लिए मेरे पास होना चाहिए। इस विषय में मैं तेनाली से बात करुँगा।” “परन्तु महाराज! आप उससे यह मत कहना कि यह सूचना मैंने आपको दी है।” राजगुरु ने राजा से प्रार्थना करते हुए कहा। उस दिन तेनाली के दरबार में आने पर राजा ने उससे कहा, “तेनाली, मैंने सुना है कि तुम्हारे पास पारस है। तुमने लोहे को सोने में बदलकर बहुत धन इकट्ठा कर लिया है।”
तेनाली बुद्धिमान तो था ही सो वह तुरन्त समझ गया कि किसी ने राजा को उसके विरुद्ध झूठी कहानी सुनाकर उसे फंसाने की कोशिश की है। इसलिए वह राजा को प्रसन्न करते हुए बोला, “जी महाराज, यह सत्य है। मैंने ऐसी कला सीख ली है और इससे काफी सोना भी बनाया है।” “तब तुम अपनी कला का प्रदर्शन अभी इसी समय दरबार में करो।’ “महाराज! मैं अभी ऐसा नहीं कर सकता। इसके लिए मुझे कुछ समय लगेगा। कल सुबह मैं आपको लोहे को सोने में परिवर्तित करने की कला दिखाऊँगा।” राजगुरु व उसके साथी समझ गए कि तेनाली अब फँस गया है, लेकिन वे यह जानने को उत्सुक थे कि तेनाली राम इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए क्या करता है? अगले दिन तेनाली गली के एक कुत्ते के साथ दरबार में आया। उस कुत्ते की पूँछ को उसने एक नली में डाला हुआ था। उसे इस प्रकार दरबार में आता देख हर व्यक्ति हँस रहा था, परन्तु यह देखकर राजा क्रोधित हो गए और बोले, “तेनाली, तुमने एक गली के कुत्ते को राजदरबार मे लाने की हिम्मत कैसे की?”
“महाराज, पहले आप मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए। क्या आप जानते हैं कि कुत्ते की पूँछ को कितने भी वर्षों तक एक सीधी नली में रखें, तब भी वह सीधी नही होती। वह अपनी कुटिल प्रकॄति को कभी नहीं छोड सकती?” “हॉ मैं इसके बारे मैं जानता हूँ।” राजा ने उत्तर दिया। “महाराज, यहॉ मैं इसी बात को तो सिद्ध करना चाहता हूँ।” तेनाली राम बोला। “अरे तेनाली, मूर्खों के समान बात मत करो। कुत्ते की पूँछ कभी सीधी हुई है जो तुम मुझसे पूँछ रहे हो। बल्कि तुम जानते हो कि तुम इस कुत्ते की पूँछ को सीधा नहीं कर सकते हो, क्योंकि यह उसकी प्रकॄति है।” “ठीक यही तो मैं आपको दिखाना चाहता हूँ और सिद्ध करना चाहता हूँ कि जब एक कुत्ते की पूँछ अपनी प्रकॄति के विरुद्ध सीधी नहीं हो सकती, तो फिर लोहा अपनी प्रकॄती को छोडकर सोना कैसे बन सकता है?” राजा कॄष्णदेव राय को तुरंत अपनी गलती का एहसास हो गया। वह समझ गए कि उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे राजगुरु की झुठी बातों पर आँख बंद करके विश्वास कर लिया। उन्होंने राजगुरु से तो कुछ नहीं कहा, परन्तु तेनाली को उसकी चतुराई के लिए पुरस्कॄत किया। राजगुरु व उनके साथी दरबारियों ने शर्म से झुका लिया क्योंकि उन लोगों के लिए यही अपमान व दण्ड था। इसके बाद तेनाली राम के खिलाफ कुछ भी कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी।
कंजूस सेठ
राजा कृष्णदेव राय के राज्य में एक कंजूस सेठ रहता था। उसके पास धन की कोई कमी न थी, पर एक पैसा भी जेब से निकालते समय उसकी नानी मर जाती थी। एक बार उसके कुछ मित्रों ने हँसी-हँसी में एक कलाकार से अपना चित्र बनवाने के लिए उसे राजी कर लिया, उसके सामने वह मान तो गया, पर जब चित्रकार उसका चित्र बनाकर लाया, तो सेठ की हिम्मत न पड़ी कि चित्र के मूल्य के रूप में चित्रकार को सौ स्वर्णमुद्राएँ दे दे। यों वह सेठ भी एक तरह का कलाकार ही था। चित्रकार को आया देखकर सेठ अंदर गया और कुछ ही क्षणों में अपना चेहरा बदलकर बाहर आया। उसने चित्रकार से कहा, ‘तुम्हारा चित्र जरा भी ठीक नहीं बन पड़ा। तुम्हीं बताओ, क्या यह चेहरा मेरे चेहरे से जरा भी मिलता है?’ चित्रकार ने देखा, सचमुच चित्र सेठ के चेहरे से जरा भी नहीं मिलता था।
तभी सेठ बोला, ‘जब तुम ऐसा चित्र बनाकर लाओगे, जो ठीक मेरी शक्ल से मिलेगा, तभी मैं उसे खरीदूँगा।’ दूसरे दिन चित्रकार एक और चित्र बनाकर लाया, जो हूबहू सेठ के उस चेहरे से मिलता था, जो सेठ ने पहले दिन बना रखा था। इस बार फिर सेठ ने अपना चेहरा बदल लिया और चित्रकार के चित्र में कमी निकालने लगा। चित्रकार बड़ा लज्जित हुआ। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस तरह की गलती उसके चित्र में क्यों होती है? अगले दिन वह फिर एक नया चित्र बनाकर ले गया, पर उसके साथ फिर वही हुआ। अब तक उसकी समझ में सेठ की चाल आ चुकी थी। वह जानता था कि यह मक्खीचूस सेठ असल में पैसे नहीं देना चाहता, पर चित्रकार अपनी कई दिनों की मेहनत भी बेकार नहीं जाने देना चाहता था। बहुत सोच-विचारकर चित्रकार तेनालीराम के पास पहुँचा और अपनी समस्या उनसे कह सुनाई। कुछ समय सोचने के बाद तेनालीराम ने कहा – ‘कल तुम उसके पास एक शीशा लेकर जाओ और कहो कि आपकी बिलकुल असली तस्वीर लेकर आया हूँ। अच्छी तरह मिलाकर देख लीजिए। कहीं कोई अंतर आपको नहीं मिलेगा। बस, फिर अपना काम हुआ ही समझो।’ अगले दिन चित्रकार ने ऐसा ही किया।
वह शीशा लेकर सेठ के यहाँ पहुँचा और उसके सामने रख दिया। ‘लीजिए, सेठ जी, आपका बिलकुल सही चित्र। गलती की इसमें जरा भी गुंजाइश नहीं है।’ चित्रकार ने अपनी मुस्कराहट पर काबू पाते हुए कहा। ‘लेकिन यह तो शीशा है।’ सेठ ने झुँझलाते हुए कहा। ‘आपकी असली सूरत शीशे के अलावा बना भी कौन सकता है? जल्दी से मेरे चित्रों का मूल्य एक हजार स्वर्णमुद्राएँ निकालिए।’ चित्रकार बोला। सेठ समझ गया कि यह सब तेनालीराम की सूझबूझ का परिणाम है। उसने तुरंत एक हजार स्वर्णमुद्राएँ चित्रकार को दे दीं। तेनालीराम ने जब यह घटना महाराज कृष्णदेव राय को बताई तो वह खूब हँसे।