तेनालीराम का घोड़ा
राजा कृष्णदेव राय का घोड़ा अच्छी नस्ल का था इसलिए उसकी कीमत ज्यादा थी। तेनालीराम का घोड़ा मरियल था। तेनाली राम उसे बेचना चाहते थे, पर उसकी कीमत बहुत ही कम थी। वह चाह कर भी बेच नहीं पाते थे। एक दिन राजा कृष्णदेव राय और तेनाली राम अपने अपने घोड़े पर सवार होकर सैर को निकले। सैर के दौरान राजा ने तेनालीराम के घोड़े की मरियल चाल देखकर कहा, “कैसा मरियल घोड़ा है तुम्हारा, जो कमाल मैं अपने घोड़े के साथ दिखा सकता हूं, वह तुम अपने घोड़े के साथ नहीं दिखा सकते।” तेनाली राम ने राजा को जवाब दिया, “महाराज जो मैं अपने घोड़े के साथ कर सकता हूं वह आप अपने घोड़े के साथ नहीं कर सकते।” राजा मानने को जरा भी तैयार नहीं थे। दोनों के बीच सौ-सौ स्वर्ण मुद्राओं की शर्त लग गई। दोनों आगे बढ़े। सामने ही तुंगभद्रा नदी पर बने पुल को वे पार करने लगे। नदी बहुत गहरी और पानी का प्रवाह तेज था। उसमें कई जगह भंवर दिखाई दे रहे थे। एकाएक तेनालीराम अपने घोड़े से उतरे और उसे पानी में धक्का दे दिया।
उन्होंने राजा से कहा, “महाराज अब आप भी अपने घोड़े के साथ ऐसा ही कर के दिखाइए।” मगर राजा अपने बढ़िया और कीमती घोड़े को पानी में कैसे धक्का दे सकते थे। उन्होंने तेनाली राम से कहा, “न बाबा न, मैं मान गया कि मै अपने घोड़े के साथ यह करतब नहीं दिखा सकता, जो तुम दिखा सकते हो।” राजा ने तेनाली राम को सौ स्वर्ण मुद्राएं दे दीं। “पर तुम्हें यह विचित्र बात सूझी कैसे?” राजा ने तेनाली राम से पूछा। “महाराज, मैंने एक पुस्तक में पढ़ा था कि बेकार और निकम्मे मित्र का यह फायदा होता है कि जब वह नहीं रहे, तो दुख नहीं होता।” तेनाली राम की यह बात सुनकर राजा ठहाका लगाकर हंस पड़े।
बोलने वाला बुत
दशहरे का त्यौहार निकट था। राजा कृष्णदेव राय के दरबारियों ने भी जब दशहरा मनाने की बात उठाई तो राजा कृष्णदेव राय बोले, ‘मेरी हार्दिक इच्छा है कि इस बार दशहरा खूब धूमधाम से मनाया जाए। मैं चाहता हूँ कि इस अवसर पर सभी दरबारी, मंत्रीगण, सेनापति और पुरोहित अपनी-अपनी झाँकियाँ सजाएँ। जिसकी झाँकी सबसे अच्छी होगी, हम उसे पुरस्कार देंगे।’ यह सुनकर सभी दूसरे दिन से ही झाँकियाँ बनाने में जुट गए। सभी एक से एक बढ़कर झाँकी बनाने की होड़ में लगे थे। झाँकियाँ एक से बढ़कर एक थीं। राजा को सभी की झाँकियाँ नजर आईं मगर तेनालीराम की झाँकी उन्हें कहीं दिखाई नहीं दी। वह सोच में पड़ गए और फिर उन्होंने अपने दरबारियों से पूछा, ‘तेनालीराम कहीं नजर नहीं आ रहा है। उसकी झाँकी भी दिखाई नहीं दे रही है। आखिर तेनालीराम है कहाँ?’ ‘महाराज, तेनालीराम को झाँकी बनानी आती ही कहाँ है? वह देखिए, उधर उस टीले पर काले रंग से रंगी एक झोंपड़ी और उसके आगे खड़ा है एक बदसूरत बुत। यही है उसकी झाँकी तेनालीराम की झाँकी।’ मंत्री ने व्यंग्यपू्र्ण स्वर में कहा।
राजा उस ऊँचे टीले पर गए और तेनालीराम से पूछा, ‘तेनालीराम, यह तुमने क्या बनाया है? क्या यही है तुम्हारी झाँकी?’ ‘जी महाराज, यही मेरी झाँकी है और मैंने यह क्या बनाया है इसका उत्तर मैं इसी से पूछकर बताता हूँ, कौन है यह?’ कहते हुए तेनालीराम ने बुत से पूछा, ‘बोलता क्यों नहीं? महाराज के सवाल का उत्तर दें।’ ‘मैं उस पापी रावण की छाया हूँ जिसके मरने की खुशी में तुम दशहरे का त्यौहार मना रहे हो। मगर मैं मरा नहीं। एक बार मरा, फिर पैदा हो गया। आज जो आप अपने आसपास भुखमरी, गरीबी, अत्याचार, उत्पीड़न आदि देख रहे हैं न…। ये सब मेरा ही किया-धरा है। अब मुझे मारने वाला है ही कौन?’ कहकर बुत ने एक जोरदार कहकहा लगाया। राजा कृष्णदेव राय को उसकी बात सुनकर क्रोध आ गया। वे गुस्से में भरकर बोले, ‘मैं अभी अपनी तलवार से इस बुत के टुकड़े-टुकड़े कर देता हूँ।’ ‘बुत के टुकड़े कर देने से क्या मैं मर जाऊँगा? क्या बुत के नष्ट हो जाने से प्रजा के दुख दूर हो जाएँगे?’ इतना कहकर बुत के अंदर से एक आदमी बाहर आया और बोला, ‘महाराज, क्षमा करें। यह सच्चाई नहीं, झांकी का नाटक था।’ ‘नहीं, यह नाटक नहीं था, सत्य था। यही सच्ची झाँकी है। मुझे मेरे कर्तव्य की याद दिलाने वाली यह झाँकी सबसे अच्छी है। प्रथम पुरस्कार तेनालीराम को दिया जाता है।’ राजा कृष्णदेव राय ने कहा। राजा की इस बात पर सभी दरबारी आश्चर्य से एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।