सन्तुष्ट व्यक्ति के लिए उपहार
एक दिन तेनाली राम बडी प्रसन्न मुद्रा में दरबार में आया। उसने बहुत अच्छे कपडे और गहने पहन रखे थे। उसे देख् कर राजा कॄष्णदेव राय बोले, “तेनाली, आज तुम बहुत प्रसन्न दीखाई दे रहे हो। क्या बात है?” “महाराज कोई खास बात नहीं है।” तेनाली राम प्यार से बोला। “नहीं आज मुझे तुम कुछ अलग लग रहे हो। वैसे एक बात है, जब तुम मुझे पहली बार मिले थे, तब तुम्हारा व्यक्तित्व बहुत साधारण था।” तेनाली बोला, “महाराज, प्रत्येक व्यक्ति समय के साथ बदलता है। विशेषतः जब उसके पास थोडा बहुत धन भी हो। मैंने आपके द्वारा दिए गए उपहारों से काफी बचत कर ली है।” राजा बोले, “तब तो तुम्हें अपनी बचत का कुछ भाग दूसरों को भी देना चाहिए।” तेनाली राम बोला, “महाराज, अभी मैंने दूसरों को देने के लायक पर्याप्त बचत नहीं की है।” यह सुनकर राजा ने तेनाली राम की दान न करने की प्रवॄति कि लिए उसे काफी लताडा। तेनाली राम ने जब देखा कि उसकी बात का राजा बुरा मान गए हैं तो उसने अपनी गलती स्वीकार करते हुए महाराज से पूछा कि उसे क्या दान करना चाहिए।
“तेनाली, तुम एक भ्व्य घर बनवाओ और उसे दान दो, इससे तुम्हें प्रसन्न्ता होगी।” राजा ने कहा। तेनाली राम ने राजा की बात मान ली। अगले कुछ माह तक वह एक भ्व्य मकान बनवाने में व्यस्त हो गया। जब वह भ्व्य मकान बनकर तैयार हो गया तो तेनाली राम ने मकान के उपर एक तख्ती टॉग दी, जिस पर लिखा था, “यह घर उस व्यक्ति को दिया जाएगा, जो अपने जीवन में मात्र उतने में ही प्रसन्नता महसूस करता हो, जितना उसके पास है।” कई लोगो ने उस तख्ती को पढा, परन्तु कोई भी मकान लेने नहीं आया। एक बार एक निर्धन व्यक्ति को उस घर के बारे में पता चला। उसने सोचा कि क्यों न वह उस मकान को प्राप्त करने की कोशिश करे। यह सोचकर वह तेनाली के घर पहुँचा उसने बाहर लगी त्ख्ती को बार-बार पढा। उसने सोचा कि लोग कितने मूर्ख हैं, जो इस मकान को लेने नहीं आ रहे। वह घर में गया और बोले, “श्रीमान, मैंने घर के बाहर टँगी तख्ती को पढा हैं, मैं दावा करता हूँ कि मैं सबसे प्रसन्न व संतुष्ट व्यक्ति हूँ। अतः मैं इस मकान का अधिकारी हूँ।”
इस पर तेनाली राम हँसने और बोला, “यदि इस घर के बिना तुम प्रसन्न और संतुष्ट हो, तो फिर तुम्हें इस घर की क्या आवश्यकता है? और यदि तुम्हें आवश्यकता है तो फिर तुम्हारा दावा गलत है। क्योंकि अगर जो कुछ तुम्हारे पास है तुम उससे संतुष्ट हो, तो तुम इसे क्यों मॉगोगे?” निर्धन व्यक्ति को अपनी भूल का आभास हो गया। उसके बाद उस मकान को मॉगने के लिए कोई नही आया। अन्त में तेनाली राम ने सारी कथा राजा को सुनाई। राजा बोले, “तुमने एक बार फिर अपनी बुद्धिमानी का परिचय दिया। परन्तु अब तुम उस मकान का क्या करोगे?” “कोई शुभ दिन देखकर मैं उसमें गॄह-प्रवेश करुँगा।” इस प्रकार एक बार फिर तेनाली राम ने राजा कॄष्णदेव राय को निरुत्तर कर दिया।
राज्य में उत्सव
एक बार राजा कृष्णदेव राय ने अपने दरबार में कहा, “नया वर्ष आरम्भ होने वाला है। मैं चाहता हूं कि नए वर्ष पर जनता को कोई नई भेंट दी जाए, नया तोहफा दिया जाए। आप बताइए, वह भेंट क्या हो? वह तोहफा क्या हो?” महाराज की बात सुनकर सभी दरबारी सोच में पड़ गए। तभी मंत्री महोदय कुछ सोचकर बोले, “महाराज, नए वर्ष पर राजधानी में एक शानदार उत्सव मनाया जाए। देश-भर से संगीतकार, नाटक मडंलियां व दूसरे कलाकार बुलवाए जाएं और वे रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत करें। जनता के लिए इससे बढ़कर नए वर्ष का उपहार और क्या हो सकता है?” राजा कृष्णदेव राय को यह सुझाव बहुत पसन्द आया। उन्होंने मंत्री से पूछा, “कितना खर्च आ जाएगा इस आयोजन पर?” “महाराज, कोई खास ज्यादा नहीं, यही दस-बीस लाख स्वर्ण मुद्राएं ही खर्च होंगी।” मंत्री ने उत्तर दिया। “इतना खर्च…कैसे?” राजा कृष्णदेव राय महामंत्री का उत्तर सुन कर चौंके। फिर मंत्री महोदय ने खर्च का ब्यौरा देते हुए कहा, “महाराज, हजारों कलाकारों के खाने-पीने और रहने का प्रबन्ध करना होगा। नई रंगशालाएं बनवाई जाएंगी। पुरानी रंगशालाओं की मरम्मत करानी होगी। शहर-भर में रोशनी और सजावट होगी। इन सब चीजों पर इतना खर्च तो हो ही जाएगा।”
मंत्री के इस ब्योरे पर राजपुरोहित और अन्य सभासदों ने भी हां में हां मिलाई। राजा कृष्णदेव राय इतने खर्च की बात सुनकर सोच में पड़ गए। उन्होंने इस बारे में तेनाली राम की राय ली। तेनाली राम ने कहा, “महाराज, उत्सव का विचार तो वास्तव में बहुत अच्छा है, मगर यह उत्सव राजधानी में नहीं होना चाहिए।” “क्यों?” राजा कृष्णदेव राय ने पूछा। दूसरे दरबारी भी तेनाली राम की ओर चिढ़कर देखने लगे। “महाराज, उत्सव यदि केवल राजधानी में हो तो शेष राज्यों की जनता को उसका क्या आनन्द आएगा? गांव वाले अपना काम छोड़कर तो उत्सव देखने आएंगे नहीं। कलाकारों को राज्य के प्रत्येक गांव व कस्बे में जाकर जनता का मनोरंजन करना चाहिए। कलाकारों की कला के माध्यम से जनता अपनी संस्कृति, अपने इतिहास को जानेगी तथा कलाकार संस्कृति की धरोहर रखने वालों से परिचित होंगे साथ ही कलाकारों का स्वागत-सत्कार गांव वाले करेंगे।”
“तेनाली राम, तुम्हारी बात तो बिल्कुल ठीक है। इसके लिए जितना धन चाहो, खजाने से ले लो।” “धन…मगर किसलिए! यह तो जनता स्वयं खर्च करेगी। उन्हीं के लिए तो यह उत्सव कर रहे हैं। इस उत्सव का नाम ‘मिलन मेला’ होगा। इस मेले में कलाकार जहां कहीं भी जाएंगे, उनके खाने-पीने और रहने का प्रबन्ध वे लोग बिना कहे कर देंगे। हां, आने-जाने का प्रबन्ध हम कर देंगे। इस तरह बहुत कम खर्च आएगा महाराज, मगर इस उत्सव (मिलन मेला) का आनन्द सभी उठाएंगे। राजा कृष्णदेव राय को तेनाली राम की बात जंच गई। उन्होंने उत्सव का सारा काम तेनालीराम को सौंप दिया। आयोजन की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले मंत्री व अन्य सभासदों के चहरे उतर गए।