48 Tenali Raman Stories in Hindi | तेनालीराम की कहानियाँ हिंदी में

मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी

विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय जहाँ कहीं भी जाते, जब भी जाते, अपने साथ हमेशा तेनालीराम को जरूर ले जाते थे। इस बात से अन्य दरबारियों को बड़ी चिढ़ होती थी। एक दिन तीन-चार दरबारियों ने मिलकर एकांत में महाराज से प्रार्थना की, ‘महाराज, कभी अपने साथ किसी अन्य व्यक्ति को भी बाहर चलने का अवसर दें।’ राजा को यह बात उचित लगी। उन्होंने उन दरबारियों को विश्वास दिलाया कि वे भविष्य में अन्य दरबारियों को भी अपने साथ घूमने-फिरने का अवसर अवश्य देंगे। एक बार जब राजा कृष्णदेव राय वेष बदलकर कुछ गाँवों के भ्रमण को जाने लगे तो अपने साथ उन्होंने इस बार तेनालीराम को नहीं लिया बल्कि उसकी जगह दो अन्य दरबारियों को साथ ले लिया। घूमते-घूमते वे एक गाँव के खेतों में पहुँच गए। खेत से हटकर एक झोपड़ी थी, जहाँ कुछ किसान बैठे गपशप कर रहे थे। राजा और अन्य लोग उन किसानों के पास पहुँचे और उनसे पानी माँगकर पिया।

फिर राजा ने किसानों से पूछा, ‘कहो भाई लोगों, तुम्हारे गाँव में कोई व्यक्ति कष्ट में तो नहीं है? अपने राजा से कोई असंतुष्ट तो नहीं है?’ इन प्रश्नों को सुनकर गाँववालों को लगा कि वे लोग अवश्य ही राज्य के कोई अधिकारीगण हैं। वे बोले, ‘महाशय, हमारे गाँव में खूब शांति है, चैन है। सब लोग सुखी हैं। दिन-भर कडी़ मेहनत करके अपना काम-काज करते हैं और रात को सुख की नींद सोते हैं। किसी को कोई दुख नहीं है। राजा कृष्णदेव राय अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह प्यार करते हैं, इसलिए राजा से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। ‘इस गाँव के लोग राजा को कैसा समझते हैं?’ राजा ने एक और प्रश्न किया। राजा के इस सवाल पर एक बूढ़ा किसान उठा और ईख के खेत में से एक मोटा-सा गन्ना तोड़ लाया। उस गन्ने को राजा को दिखाता हुआ वह बूढ़ा किसान बोला, ‘श्रीमान जी, हमारे राजा कृष्णदेव राय बिल्कुल इस गन्ने जैसे हैं।’ अपनी तुलना एक गन्ने से होती देख राजा कृष्णदेव राय सकपका गए।

उनकी समझ में यह बात बिल्कुल भी न आई कि इस बूढ़े किसान की बात का अर्थ क्या है? उनकी यह भी समझ में न आया कि इस गाँव के रहने वाले अपने राजा के प्रति क्या विचार रखते हैं? राजा कृष्णदेव राय के साथ जो अन्य साथी थे, राजा ने उन साथियों से पूछा, ‘इस बूढ़े किसान के कहने का क्या अर्थ है?’ साथी राजा का यह सवाल सुनकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। फिर एक साथी ने हिम्मत की और बोला, ‘महाराज, इस बूढ़े किसान के कहने का साफ मतलब यही है कि हमारे राजा इस मोटे गन्ने की तरह कमजोर हैं। उसे जब भी कोई चाहे, एक झटके में उखाड़ सकता है। जैसे कि मैंने यह गन्ना उखाड़ लिया है।’ राजा ने अपने साथी की इस बात पर विचार किया तो राजा को यह बात सही मालूम हुई। वह गुस्से से भर गए और इस बूढ़े किसान से बोले, ‘तुम शायद मुझे नहीं जानते कि मैं कौन हूँ?’ राजा की क्रोध से भरी वाणी सुनकर वह बूढ़ा किसान डर के मारे थर-थर काँपने लगा। तभी झोंपड़ी में से एक अन्य बूढ़ा उठ खड़ा हुआ और बड़े नम्र स्वर में बोला – ‘महाराज, हम आपको अच्छी तरह जान गए हैं, पहचान गए हैं, लेकिन हमें दुख इस बात का है कि आपके साथी ही आपके असली रूप को नहीं जानते।

मेरे साथी किसान के कहने का मतलब यह है कि हमारे महाराज अपनी प्रजा के लिए तो गन्ने के समान कोमल और रसीले हैं किंतु दुष्टों और अपने दुश्मनों के लिए महानतम कठोर भी।’ उस बूढ़े ने एक कुत्ते पर गन्ने का प्रहार करते हुए अपनी बात पूरी की। इतना कहने के साथ ही उस बूढ़े ने अपना लबादा उतार फेंका और अपनी नकली दाढ़ी-मूँछें उतारने लगा। उसे देखते ही राजा चौंक पड़े। ‘तेनालीराम, तुमने यहाँ भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा।’ ‘तुम लोगों का पीछा कैसे छोड़ता भाई? अगर मैं पीछा न करता तो तुम इन सरल हृदय किसानों को मौत के घाट ही उतरवा देते। महाराज के दिल में क्रोध का ज्वार पैदा करते, सो अलग।’ ‘तुम ठीक ही कह रहे हो, तेनालीराम। मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी होता है। भविष्य में मैं कभी तुम्हारे अलावा किसी और को साथ नहीं रखा करूँगा।’ उन सबकी आपस की बातचीत से गाँववालों को पता चल ही गया था कि उनकी झोंपड़ी पर स्वयं महाराज पधारे हैं और भेष बदलकर पहले से उनके बीच बैठा हुआ आदमी ही तेनालीराम है तो वे उनके स्वागत के लिए दौड़ पड़े।

कोई चारपाई उठवाकर लाया तो कोई गन्ने का ताजा रस निकालकर ले आया। गाँववालों ने बड़े ही मन से अपने मेहमानों का स्वागत किया। उनकी आवभगत की। राजा कृष्णदेव राय उन ग्रामवासियों का प्यार देखकर आत्मविभोर हो गए। तेनालीराम की चोट से आहत हुए दरबारी मुँह लटकाए हुए जमीन कुरेदते रहे और तेनालीराम मंद-मंद मुस्करा रहे थे।

मृत्युदंड की धमकी

थट्टाचारी कॄष्णदेव राय के दरबार में राजगुरु थे। वह तेनाली राम से बहुत ईर्ष्या करते थे। उन्हें जब भी मौका मिलता, तो वे तेनाली राम के विरुद्ध राजा के कान भरने से नहीं चूकते थे। एक बार क्रोध में आकर राजा ने तेनाली राम को मॄत्युदण्ड देने की घोषणा कर दी, परन्तु अपनी विलक्षण बुद्धि और हाजिर जवाबी से तेनाली राम ने जीवन की रक्षा की। एक बार तेनाली राम ने राजा द्वारा दी जाने वाली मॄत्युदण्ड की धमकी को हमेशा के लिए समाप्त करने की योजना बनाई। वह थट्टाचारी के पास गए और बोले, “महाशय, एक सुन्दर नर्तकी शहर में आई है। वह आपके समान किसी महान व्यक्ति से मिलना चाहती है। उसने आपकी काफी प्रशंसा भी सुन रखी है। आपको आज की रात उसके घर जाकर, उससे अवश्य मिलना चाहिए, परन्तु आपकी बदनामी न हो, इसलिए उसने कहलवाया है कि आप उसके पास एक स्त्री के रुप में जाइएगा।” थट्टाचारी तेनाली राम की बातों से सहमत हो गए। इसके बाद तेनाली राम राजा के पास गए और वही सारी कहानी राजा को सुनाई। राजा की अनेक पत्नियॉ थीं तथा वह एक और नई पत्नी चाहते थे। अतः वे भी स्त्री के रुप में उस नर्तकी से मिलने के लिए तैयार हो गए।

शाम होते ही तेनाली राम ने उस भवन की सारी बत्तियॉ बुझा दीं, जहॉ उसने राजगुरु और राजा को बुलाया था। स्त्री वेश में थट्टाचारी पहले पहूँचे और अंधेरे कक्ष में जाकर बैठ गये। वहीं प्रतीक्षा करते हुए उन्हें पायल की झंकार सुनाई दी। उन्होंने देखा कि एक स्त्री ने कमरे में प्रवेश किया है, परन्तु अंधेरे के कारण वह उसका चेहरा ठीक से नहीं देख पाए। वास्तव में राजगुरु जिसे स्त्री समझ रहे थे वह स्त्री नहीं, बल्कि राजा ही थे और वार्तालाप शुरु होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोडी देर पश्चात कमरे की खिडकी के पास खडे तेनाली राम को आवाज सुनाई दी। “प्रिय, तुम मुझे अपना सुन्दर चेहरा क्यों नहीं दिखा रही हो?” थट्टाचारी मर्दाना आवाज में बोले। राजा ने राजगुरु की आवाज पहचान ली और बोले, “राजगुरु, आप यहॉ क्या कर रहे हैं?” राजगुरु ने राजा की आवाज पहचान ली। शीघ्र ही वे दोनों समझ गए कि तेनाली राम ने उन्हें मूर्ख बनाया है। दोनों ने कक्ष से बाहर आने का प्रयास किया, परन्तु तेनाली राम ने द्वार बाहर से बन्द कर उस पर ताला लगा दिया था। वह खिडकी से चिल्लाया, “यदि आप दोनों यह वचन दें कि भविष्य में कभी मॄत्युदण्ड देने की धमकी नहीं देंगे, तो मैं दरवाजा खोल दूँगा।”

महाराज को तेनाली राम के इस दुस्साहस पर बहुत ही क्रोध आया, पर इस परिस्थिति में दोनों अंधकारमय कक्ष में असहाय थे और तेनाली राम की इस हरकत का उसे मजा भी नहीं चखा सकते थे। ऊपर से दोनों को बदनामी का डर अलग था और दोनों के पास अब कोई रास्ता भी नहीं बचा था, इसलिए दोनों ने ही तेनाली राम की बात मान ली।

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