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Complete Shri Krishna Katha – जन्म से लेकर गोलोक धाम तक

कहानी1 year ago395 Views

पाण्डवों को कृष्ण की सलाह

पाण्डवों का इन्द्रप्रस्थ पर शासन था। अपने बड़े भाई युधिष्ठिर को सम्राट् की उपाधि दिलाने के लिए शेष भाई राजसूय यज्ञ करना चाहते थे। द्वारका में यह संदेश भेजकर युधिष्ठिर ने कृष्ण से सलाह मांगी। कृष्ण तुरंत इन्द्रप्रस्थ आए। उन्होंने कहा, ” मगध के राजा जरासंध ने कई राजाओं को जीतकर बंदी बना रखा है। शक्तिशाली राजा शिशुपाल भी असहाय है। इस कारण जरासंध को मारने के पश्चात् ही यह यज्ञ संभव है।” यह सुनकर युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का विचार त्यागने में ही भलाई समझी पर पुनः कृष्ण ने कहा, “जरासंध ने बहुत सारे राजाओं को बंदी बना रखा है। उनकी संख्या सौ पहुँचने पर वह एक यज्ञ करेगा। उस यज्ञ में वह पशुओं की जगह इन राजाओं की आहुति देगा।” फलतः जरासंध को मारने पर सहमति बनी।

कृष्ण और जरासंध

जरासंध कंस का श्वसुर और अत्यंत शक्तिशाली योद्धा था। युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करना चाहते थे पर जरासंघ के जीवित रहते हुए यज्ञ संभव नहीं था। कृष्ण की सलाह पर राजसूय यज्ञ के पहले जरासंध को मारने पर सहमति बनी थी। अर्जुन, भीम और कृष्ण जरासंध के पास गए और उसे द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। जरासंध को अपने प्रतिद्वन्द्वी को चुनने की छूट थी। उसने भीम को चुना क्योंकि दोनों ही मंझे हुए पहलवान थे। शिव के वरदान के कारण जरासंध अजेय था। भीम और जरासंध के बीच कई दिनों तक कुश्ती चली। भीम बार-बार जरासंध के शरीर को दो टुकड़ों में चीरकर फेंकता पर दोनों टुकड़े फिर से आपस में जुड़ जाते थे। भीम ने विवश होकर कृष्ण की ओर देखा । कृष्ण ने एक घास लेकर उसे दो भागों में चीरा और दोनों को एक दूसरे की उल्टी दिशा में फेंक दिया। भीम इशारा समझ गया। इस बार जरासंध को दो टुकड़ों में विभक्त करने के बाद उसने दोनों भागों को एक दूसरे के विपरीत दिशा में फेंक दिया। फलतः जरासंध का अंत हो गया।

कृष्ण और मायासुर

मायासुर नामक दैत्य खाण्डवप्रस्थ में रहता था। जब खाण्डवप्रस्थ वन धू-धू कर जलने लगा तब उसने अर्जुन और कृष्ण से प्राणदान मांगा था और बदले में उसने समय पड़ने पर सहायता करने का वचन दिया था। वह एक उत्तम शिल्पकार था। कृष्ण ने इन्द्रप्रस्थ बनाने की जिम्मेदारी उसे ही सौंपी थी। इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों का महल मायामहल था। महल का एक हॉल भरपूर भ्रम पैदा करता था। उसकी सुंदरता अप्रतिम थी। भीतर जाने और बाहर आने का मार्ग भी भ्रमपूर्ण था। महल की दीवारें मेहराबदार और सुनहरी थीं तथा उसमें कीमती रत्न जड़े हुए थे। दर्पण सी चमकीली पारदर्शी ज़मीन पानी का अहसास कराती थी जिसमें तैरती हुई मछलियाँ वास्तविक सी दिखलाई देती थीं। महल के चारों ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे जिस पर सदा फूल खिले रहते थे। आस-पास में खुशबूदार वन थे। सरोवरों में वास्तविक तथा बनावटी दोनों प्रकार के फूल खिले रहते थे तथा जल जीव रहते थे। महल की रखवाली हजारों राक्षसों के जिम्मे थी। इस महल को बनाने में मायासुर को लगभग एक वर्ष का समय लगा था। इस महल के कारण कौरवों की ईर्ष्या कई गुनी बढ़ गई थी।

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