Do No Harm Book Summary in Hindi – जिंदगी की कहानियां, मौत और ब्रेन सर्जरी

Do No Harm Book Summary in Hindi – डू नो हार्म (2004) लंदन के जाने माने न्यूरोलॉजिस्ट हेंनरी मार्श का संस्मरण यानि एक्सपीरियंस के आधार पर लिखा गया लेख है, जिसकी कहानियां ऑपरेटिंग रूम के बारे में गहरी जानकारी देती हैं.

मार्श में जाना कि उनके प्रोफेशन में बहुत सारी चीजें हैं जो मोरल ग्रे, यानी गलत काम में भी मोरालिटी बरकरार रखना, मिसाल के तौर पर अगर चोर गरीबों से चोरी नहीं करता तो उसे मोरल ग्रे की कैटेगरी में रखा जाएगा, के दायरे में आती हैं, एकदम ऐसे ही जिंदगी में भी होता है.

अगर आप एक मेडिकल स्टूडेंट् है, अगर आप सर्जन की जिंदगी के बारे में जानने की ख्वाहिश रखते हैं, या कोई भी जिसे आने वाले वक्त में ऑपरेशन कराना है तो ये बुक आपके लिए ही है।

लेखक

हेंनरी मार्श ब्रिटेन के सबसे फेमस न्यूरोसर्जन है और दो डॉक्यूमेंट्री का सब्जेक्ट भी रहे हैं. लंदन के सेंट जॉर्जस हॉस्पिटल के सीनियर कंसलटेंट रहते हुए उन्होंने एक रिवॉल्यूशनरी सर्जरी प्रोसीजर डिवेलप करने में मदद की जो मरीजों को लोकल एनएसथीसिया के दौरान जगाए रखती है ताकि सर्जरी के दौरान दिमाग पर होने वाले नेगेटिव असर को कम किया जा सके.

सर्जरी में करियर बनाने के लिए आपको लोगों की तकलीफ में जज्बाती न होने और कंपैशन, उम्मीद और हकीकत के बीच में बैलेंस बनाना होगा

जब अमेरिका में ईआर नाम का एक टीवी शो बहुत फेमस हुआ, तो देश भर के मेडिकल कॉलेज में एप्लीकेंट्स की तादाद तेजी से बढ़ गयी. डॉक्टर का पेशा बाकियों के कंपैरिजन में बेहतर है. वह मुश्किल फैसला लेकर लोगों की जिंदगी बचाते हैं- कौन यह काम नहीं करना चाहेगा?

लेकिन हम सब जानते हैं कि हकीकत में कोई डॉक्टर हाउस नहीं है हर डॉक्टर और सर्जन कुछ ना कुछ गलती करता है. वह कोई खुदा नहीं होते. और जब वह नाकाम होते हैं, तो उन्हें और उनके मरीजों को, उस नाकामी के नतीजे के साथ पूरी जिंदगी गुजारनी होती है. लंदन के जाने माने न्यूरो सर्जन हेनरी मार्श का करियर बहुत कामयाब रहा है उन्होंने बहुत सारे लोगों की जिंदगी बचाई और बेहतर की है.

लेकिन उन्होंने भी एक बहुत बड़ी गलती की है जिसने उनके मरीज की जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी. यह समरी आपको उनकी कहानी बताएगी. इस समरी मे आप जानेंगे कि अगर किसी सर्जन से सर्जरी के दौरान किसी मरीज का ब्रेन हमेशा के लिए डैमेज हो जाए तो इसका सामना कैसे करें, क्यों एक सर्जन के लिए बुरी यादें अच्छी चीज है, औरक्यों कभी-कभी जिंदगी से बेहतर मौत होती है।

तो चलिए शुरू करते हैं!

हेंनरी मार्श 1987 से लंदन के एटकिन्सन मॉर्ले और सेंट जॉर्ज हॉस्पिटल में कंसलटेंट न्यूरोसर्जन हैं. उन्हें उम्मीद है कि यह कहानी लोगों को यह समझने में मदद करेगी कि डॉक्टर कितनी मुश्किलों का सामना करते हैं- यह मुश्किलें टेक्निकल नहीं बल्कि ह्यूमन नेचर से जुड़ी होती हैं.

इनमें से एक मुश्किल हमारा लोगों से एम्पैथी रखना है. लेखक बताते हैं कि जब वह मेडिकल स्टूडेंट थे तब उनके लिए मरीजों के साथ सहानुभूति रखना बहुत आसान था, क्योंकि इलाज के नतीजे की जिम्मेदारी उनके ऊपर नहीं थी. हालांकि, जब वह आगे बढ़े और उनकी जिंदगी में जिम्मेदारियां आईं, तो यही सहानुभूति मुश्किल हो गई.

जिम्मेदारियों में नाकामी का डर शामिल होता है, मरीज स्ट्रेस और फिक्र की वजह बनते हैं. मार्श, बाकी डॉक्टरों की तरह वक्त के साथ सख्त हो गए, मरीजों को किसी ऐसे स्पीशीज की तरह समझने लगे, जो उनके जैसे डॉक्टरों से बहुत अलग होते हैं.

इसका यह मतलब नहीं है उम्मीद और एंपैथी के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन मेडिकल प्रोगनोसिस यानि एक्सपीरियंस के आधार पर अंदाजा लगाने के दौरान उम्मीद और हकीकत में बैलेंस बना के रख पाना मुश्किल होता है – अगर वह स्पेक्ट्रम के किसी भी तरफ ज्यादा आगे बढ़ जाते हैं तो या तो वह अपने मरीजों की जिंदगी भर ना उम्मीदी में जीने की वजह बन जाते हैं या फिर जब ट्यूमर जैसी चीजें घातक साबित हो जाती हैं तो खुद पर नाकाबिल और बेईमान होने का इल्जाम झेलते हैं.

लेखक के मुताबिक सबसे ज्यादा स्ट्रेसफुल सिचुएशन तब होती है जब एक सर्जन दूसरे सर्जन की सर्जरी करता है.

मिसाल के तौर पर जब उन्हें रेटिनल सर्जरी की जरूरत थी तो उन्हें मालूम था कि उनके दोस्त के लिए यह सर्जरी मौका और मुश्किल दोनों है.इन सिचुएशंस में डिटैचमेंट वाला नियम भी फेल हो जाता है सर्जन का इलाज करना एक्पोस्ड सा फील होता है क्योंकि मरीज को मालूम है कि सामने वाला गलती कर सकता है.

हालांकि, इससे पता चलता है डिटैचमेंट वक्त के साथ खत्म हो जाती है. अब जैसे लेखक उम्र दराज हो गए हैं वह डरते कम हैं, गलतियों और नाकामियों को एक्सेप्ट करते हैं. उन्हें यह समझ आ गया है कि वह अपने मरीजों की तरह ही खून और मांस से बने हैं. वह भी कमजोर पड़ सकते हैं और गलतियां कर सकते हैं.

हम लोगों की तरह डॉक्टर्स भी इंसान है

मेडिकल साइंस में ढेरों जानकारियां होने के बावजूद डॉक्टर बाकियों की तरह ही होते हैं, वह भी गलती कर सकते हैं. लेकिन इसका एहसास मैच्योरिटी और एक्सपीरियंस के साथ होता है. असल में एक में अच्छा डॉक्टर बनने का एक ही तरीका है, प्रैक्टिस कीजिए, चैलेंज लीजिए, गलतियां कीजिए (जिनमें से कुछ मरीजों को बहुत तकलीफ भी देंगी) और उनसे सीखिए इस प्वाइंट को साबित करने के लिए लेखक बताते हैं कि एक बार उन्होंने एक सर्जरी पर कई घंटों बहुत मेहनत की.

मरीज के दिमाग से जरूरत से ज्यादा ट्यूमर निकाल देने की वजह से उसका दिमाग खराब हो गया था. उस शख्स ने अपनी बाकी पूरी जिंदगी कोमा की हालत में नर्सिंग होम में गुजारी.

लेखक उस इंसान की यादों से सहम गए थे लेकिन फिर उनके गुरुर ने उन्हें एक सबक सिखाया, जब भी जरूरत हो दूसरे डॉक्टर की मदद लो और जानो कि ऑपरेशन प्रोसीजर कब खत्म करना है. घमंड से छुटकारा पाकर और सॉफ्टनेस अपनानकर लेखक ना सिर्फ एक बेहतरीन डॉक्टर बन गए बल्कि एक अच्छे इंसान भी.

यकीनन यह सब लेखक की जिंदगी के दूसरे पहलुओं में भी कारगर रहा. मिसाल के तौर पर लेखक बताते हैं कि एक बार जब वह ग्रॉसरी खरीदने के लिए लाइन में लगे थे तो उन्हें एहसास हुआ कि उनके जैसा इतने बड़े न्यूरो सर्जन को रोजमर्रा का काम करने वाली भीड़ के साथ लाइन में इंतजार करना पड़ रहा है. तभी उन्हें याद आया कि उनके काम की कीमत लोगों की जिंदगी की कीमत से है- जो लोग उनके सामने लाइन में खड़े हैं वैसे ही लोग. यह काफी हम्बलिंग एक्सपीरियंस था.

इससे भी ज्यादा यह एक्सेप्ट करना कि डॉक्टर भी गलतियां कर सकते हैं, इसके साथ ही यह भी एक्सेप्ट करना होगा कि ऑपरेशन टेबल पर भी कुछ चीजें किस्मत के हाथ में होती हैं. कामयाबी और नाकामी डॉक्टर के हाथ में नहीं होती कभी-कभी सब कुछ सही करने के बावजूद कुछ गलत हो जाता है. न्यूरोसर्जन्स कोई खुदा नहीं हैं उनकी जिंदगी भी उसी किस्मत से चलती है जिससे बाकी सब की.

लाइफ मुश्किल फैसलों से भरी है. लेकिन न्यूरोसर्जरी में खतरा इतना ज्यादा होता है कि सही फैसला लेना नाइटमेयर सा रास्ता है. जैसा कि आप ने जाना, सर्जन्स भी चांसेस से नहीं भाग सकते. यह ऑपरेशन करने के फैसले को ज्यादा मुश्किल बना देता है. लेखक को उस मरीज के बारे में याद आता है जो रनिंग और बाइकिंग को लेकर बहुत पैशेनेट था.

हालांकि उसे सीरियस ट्युमर था और ऑपरेशन के चांस की वजह से वह वैजिटेटिव स्टेट, यानी ऐसी हालत जब दिमाग कुछ समझ और रिस्पांस नहीं कर पाता, का शिकार हो सकता था. तो, मरीज़ के पैशन को और सर्जरी के रिस्क को समझते हुए, क्या ऑपरेशन कर देना सही है?

ऐसे मामलों में कोई साफ हल नहीं होता. क्योंकि यहां सवाल सर्जरी की काबिलियत का नहीं बल्कि जिंदगी और मौत का हो जाता है. इस मुश्किल को कुछ इस तरह समझा जा सकता है एक बार लेखक और उनकी टीम बहस में पड़ गई कि क्या उन्हें एक बुजुर्ग औरत का ऑपरेशन करना चाहिए, जिसके लिए सर्जरी के बाद इंडिपेंडेंट जिंदगी जी पाने के चांसेस ज़ीरो के बराबर थे.

लेकिन मरीज नर्सिंग होम में जिंदगी गुजारने के बजाए मर सकता था. जहां कई डॉक्टर ने कहा कि ‘हम लोग उन्हें मरने नहीं दे सकते, वहीं लेखक का मानना था कि “हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते”?, जब वह खुद यही चाहती हैं. क्या इच्छा मृत्यु के साथ उनके दर्द को खत्म कर देना बेहतर होता? क्या इच्छा मृत्यु एथिकल है ?

लेखक इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए खुद से पूछते हैं, कि अगर वह इस तरह के ब्रेन ट्यूमर का शिकार होते हैं तो वह खुद क् करते. उनका हल स्युसाइड होता, हालांकि उन्हें मालूम था कि जब तक ऐसी सिचुएशन में ना पढ़ा जाए फैसले का कुछ कहा नहीं जा सकता.

कभी-कभी धीरे-धीरे मरने से बेहतर जल्दी की मौत है, लेखक समझते हैं कि जरूरी नहीं, मौत सबसे बुरा नतीजा हो. क्या ऑपरेशन के फेल हो जाने की वजह से वेजिटेटिव हालत में जिंदगी गुजारना, मौत से बेहतर है?

न्यूरो सर्जन होने के तौर पर आप जिंदगी के सबसे मुश्किल सवालों का सामना करते हैं

उम्मीद और हकीकत, डिटैचमेंट और पैशन के बीच बैलेंस बनाना, इस बात की हकीकत का सामना करना है कि इंसान की जिंदगी मुश्किलों से भरी है. इन मुश्किलों का सामना करना उन एरियाज में और मुश्किल होता है जहां रिस्क ज्यादा हो जैसे कि न्यूरो सर्जरी.लेखक उस वक्त को याद करते हैं जब वह अपनी स्टूडेंट लाइफ में नर्सिंग असिस्टेंट के तौर पर साइको-जेरिएट्रिक में काम करते थे.

हालांकि उन्हें लगता था कि इस काम का कोई फायदा नहीं है, इसने उन्हें ह्यूमन काइंडनेस की हद समझा दी. लेखक ने पाया कि बहुत सारे मरीज सालों से हॉस्पिटल में पड़े हैं. उनमें से काफी लोग लोबोटोमीज़ से गूज़रे थे, जिन्हें खुशमिजाज और शांत लोगों की तौर पर जाना जाता था, हकीकत में वह लाइफ-लेस हो चुके होते हैं.

उन्हें यह जानकर हैरत हुई के बहुत सारे पेशेंट्स ऐसे हैं जिनकी ना कोई टेस्ट रिपोर्ट है और ना कोई चेकअप हुआ है लेकिन वह दशकों से हॉस्पिटल में पड़े हैं. इससे लेखक को हॉस्पिटल कुछ डॉक्टर्स और नर्स की हकीकत का पता चला.

एक तरफ हम सब इंसानों की मोहब्बत और काइंडनेस पर यकीन करना चाहते हैं, लेकिन हकीकत बहुत अलग है और डिसकैरेजिंग वर्किंग सिचुएशंस लोगों को उनके अंदर मौजूद लेज़िनेस, क्रुएलिटी और नफरत जैसी फीलिंग्स पर ऑपरेट करने लगती हैं.

हकीकत में ज्यादातर न्यूरोसर्जन्स की जिंदगी गहरी निराशा के दौर से गुजर रही है. साइकोलॉजिकल रिसर्च ने लगातार यह साबित किया है कि खुद को खुश रखने का सबसे बेहतरीन तरीका दूसरों को खुश करना है. हालांकि लेखक ने अपनी जिंदगी में बहुत सारे मरीजों को सक्सेसफुल ऑपरेशन के चलते खुशियां दी हैं लेकिन जिंदगी की ऊंचाइयों में गलतियों और नाकामी के कारण होने वाली तकलीफें में भी शामिल हैं.

लेकिन इसमें एक अच्छाई है. लेखक को याद है उनके पुराने बॉस ने कहा था कि “एक अच्छे सर्जन के पास बुरी यादें होती हैं.” आगे बढ़ने, गलतियों को सुधारने, और बेहतर बनने के लिए निराशा से बाहर निकलना और उन यादों की तकलीफ को हराना जरूरी है.

Conclusion

न्यूरोसर्जन्स सब कुछ जानने वाले खुदा नहीं होते. वह आपकी तरह ही इंसान है, उनकी मेडिकल नॉलेज उन्हें इंसानों जैसी गलतियां करने और एथिकल डिलेमा से जूझने से नहीं बचाती. लेकिन यह गलतियां ही है जो उन्हें अपने काम में इतना बेहतर बनाती हैं.

तो दोस्तों आपको आज का हमारा यह Do No Harm Book Summary in Hindi कैसा लगा ?

आज आपने क्या सीखा ?

अगर आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव है तो मुझे नीचे कमेंट करके जरूर बताये।

आपका बहुमूल्य समय देने के लिए दिल से धन्यवाद,

Wish You All The Very Best.

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